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जैन विज्ञान अनित्य मानते थे, परन्तु वस्तुतः देखा जाय तो, दिखलाई देनेवाले उत्पत्ति और विनासमें अर्थात् परिवर्तनमात्रके मूलमें एक ऐसा तत्त्व रहता है जो सदैव अविकृत ही रहता है। उदाहरणके लिये, स्वर्णालंकारके परिवर्तनमें सोना तो वहका वही रहेगा- केवल उसके आकारमें परिवर्तन होता रहता है। भारतवर्षमें वेदान्तियोंने और ग्रीसमें Parmenidesके अनुयायियोंने परिवर्तनवाद जैसी वस्तुको ही उड़ा दिया है। उन्होंने द्रन्यकी नित्य सत्ता और अविकृति पर ही भार दिया है । स्याद्वादी जैन इन दोनों वातोंको अमुक अपेक्षासे स्वीकार करते है और अमुक अपेक्षासे इनका परिहार करते है। वे कहते हैं कि सत्ता भी है और परिवर्तन भी है। यही कारण है कि वे द्रव्यका वर्णन करते समय उसे 'उत्पादव्यय-धौव्ययुक्त' कहते हैं । अर्थात् (१) द्रव्यकी उत्पत्ति है, (२) द्रव्यका विनाश है और (३) द्रव्यके भीतर एक ऐसा तत्व है जो उत्पत्ति-विनाशरूप परिवर्तनमें भी अविकृत-अपरिवर्तित और अटूट रहता है।
द्रव्य, गुण, पर्याय द्रव्यका विचार करनेके समय उसके गुण और पर्याय पर भी विचार करना आवश्यक है। जैन लोग द्रव्यको कुछ अंशोंमें Cartesian के Substance के समान मानते है। द्रव्यके साथ जो चिरकाल अविच्छिन रूपसे रहता है अथवा जिसके बिना द्रव्य, द्रव्य ही नहीं रहता, उसे 'गुण' कहते हैं। द्रव्य स्वभावतः अविकृत रहकर अनन्त परिवर्तनों के भीतर जो दिखलाई देता है वह पर्याय है। जैन जिसे पर्याय कहते हैं उसे Cartesian mode कहता है । जैन दृष्टिसे पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये पांच अजीव द्रव्य है।