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जिनवाणी अपेक्षासे घट है, घट नहीं है, और वह भी अवक्तव्य है। यह सप्तम भेद तीसरे और चौथे भेदके योगसे बना है।
जैन दार्शनिकोका कहना है कि यथार्थ वस्तुविचारके लिये यह सप्तमंगी अथवा स्याद्वाड अनिवार्य है। स्याद्वादका आश्रय लिये बिना वस्तुका स्वरूप समझमें नहीं आ सकता। 'घट है। ऐसा कहनेमात्रसे उसका समस्त विवरण हो गया ऐसा नहीं कह सकते। 'घट नहीं है। ऐसा कहनेमें भी बहुत अपूर्णता रह जाती है। 'घट है और घट नहीं है' ऐसा कह देना भी काफी नहीं है। 'घट अवक्तव्य है। यह भी पूर्ण विवरण न हुवा। जैन इस बात पर बड़ा जोर देते है कि सप्तभंगीके एक दो भेदोकी सहायतासे वस्तु-स्वभावका पूर्ण निरूपण नहीं हो सकता। - और जैनोंका उक्त मन्तव्य नगण्य कह देने योग्य नहीं है। प्रत्येक भेदमें कुछ न कुछ सत्य तो अवश्य है। पूर्वोक्त सातो नयकी दृष्टि से देखा जाय तभी पूर्ण सत्य एवं तथ्य मालूम हो सकता है । जिस प्रकार अस्तित्वके विषयमें सप्तमंगीका क्रमशः व्यवहार हुआ है उसी प्रकार नित्यता आदि गुणों पर भी उसे घटा सकते हैं। अर्थात् पदार्थ नित्य है या अनित्य, यह जाननेके लिये भी जैन पूर्वोक्त सप्तभंगीका
आश्रय लेते हैं। जैन सिद्धान्त तो कहता है कि पदार्थ-तत्त्वके निरूपणके लिये स्याद्वाद ही एकमात्र उपाय है।
द्रव्य
द्रव्यकी उत्पत्ति है और उनका विनाश भी है ऐसा हम सब मानते है। भारतवर्षमें बौद्ध और ग्रीसमें Herahtusके शिष्य द्रव्यको