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जिनवाणी 'धूमवान् होता है वह वह्निमान होता है यथा महानस । (४) यह पर्वत धूमवान् है, (५) इस लिये यह वह्निमान् है। अनुमानके ये पांच अवयच क्रमशः प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमनके नामसे प्रसिद्ध हैं । जैन दर्शनके नैयायिक कहते है कि उदाहरण, उपनय और निगमन निरर्थक है । जैन अनुमानके दो अवयव मानते है-(१) यह पर्वत वह्निमान् है, (२) क्यों कि यह धूमवान् है। जैन कहते हैं कि कोई भी बुद्धिमान् प्राणी इन दो अवयवोंसे ही अनुमानके विषयको समझ सकता है । अत एव अनुमानके अन्य अवयव वेकार है । परन्तु यदि श्रोता अल्पबुद्धि हो तो उसके लिये जैन लोग नैयायिकोंक पांच अवयवोंका स्वीकार करते ही है, इतना ही नहीं इसके अतिरिक्त प्रतिज्ञाशुद्धि, हेतुशुद्धि जैसे और भी पांच अवयव चढाकर अनुमानके दस अवयव बनाते हैं ।
श्रुतज्ञान अनुमान तक मतिज्ञानका, अर्थात् इन्द्रियसंश्लिष्ट ज्ञानका अधिकार है। श्रुतज्ञान नित्य-सत्यके भण्डाररूप है। इसीका दूसरा नाम आगम है । जैन ऋग्वेदादि चार वेदांको आगम या प्रमाणरूप नहीं मानते । वे कहते है कि जिन्होंने अपनी साधना-तपश्चर्याके वलसे लोकोत्तरत्व प्राप्त किया है उन्हीं सिद्ध, सर्वज्ञ, तीर्थंकर भगवानके वचन सर्वोत्कृष्ट आगम हो सकते है । कभी कभी जैन अपने आगमको वेद भी कहते है और उन्हें चार भागोंमें विभक्त करते है। जिस प्रकार मतिज्ञानके अवग्रहादि चार भेद अथवा पर्याय है उसी प्रकारचे श्रुतज्ञानके भी लब्धि, भावना, उपयोग और नय ये चार भेद करते हैं। ये चार मेद वस्तुतः व्याख्यान-भेदमात्र है । इस व्याख्यानप्रणालीको