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________________ ७६ जिनवाणी है। कर्मके आश्रवसे निश्चयतः शुद्ध और व्यवहारदृष्टि से अनादिवद्ध जीव पुनः बन्धनमें पड़ता है। निश्चयनयके अनुसार जीव स्वयं रागद्वेषादि भावोंका कर्ता है । जीव कर्मपुद्गलका उपादानकारण या निमित्तकारण नहीं है, तथापि रागद्वेपादि भावोंके आविर्भावसे आत्मामें कर्मका आश्रव होता है। इसी लिये व्यवहारदृष्टिसे आत्माको कर्मपुद्गलका कर्ता कहा जाता है । कर्मके भी घाती और अघाती ये दो प्रकार हैं। इसके अतिरिक्त ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय इत्यादि भेदसे कर्म आठ प्रकारका और श्रुतावरणीय, चारित्रमोहनीय आदि भेदसे कर्म १४८ प्रकारका होता है। इन सब कर्मोंका मूलोच्छेदन होने पर आत्मा निज स्वभावमें रमण करता है अर्थात् मुक्ति प्राप्त करता है।
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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