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जैन दर्शनमें कर्मवाद
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हुवे भी भावप्रत्यय अथवा भावकर्मके उदयसे आत्मा ऐसी अवस्थामें • आ जाता है कि जिससे कर्मपुद्गल स्वयं ही अनुपम अवस्थाको प्राप्त होकर सहज में ही आत्मामें प्रवेशलाभ करते हैं । आत्मा साक्षात् रूपमें उपादानकारण या निमित्तकारण न होते हुवे भी परोक्ष रूपसे कर्ता है, और इसी लिये व्यवहारदृष्टिसे पुद्गल कर्मका कर्ता माना जाता है।
यहां कर्म संबन्धी जैन सिद्धान्तका संक्षिप्त विवेचन किया गया है । न्याय दर्शनके मतानुसार कर्मका अर्थ पुरुषकृत प्रयत्नमात्र है । यह - ऊपर बतलाया जा चुका है। इस प्रकारके प्रयत्नका फल जब दिखलाई न दिया तब [ न्यायदर्शन-प्रणेता ] गौतमको कर्मफल- नियन्ता ईश्वरका अस्तित्व स्वीकार करना पड़ा। उसने यह सिद्धान्त स्थापित किया कि कर्मके साथ फलका संयोग करना ईश्वरके अधिकारमें है ।
बौद्ध मतानुसार कर्म केवल पुरुषकृत प्रयत्नमात्र ही नहीं है । . वह एक महान विश्व व्यापार - संसार - नियम - है । यही संसारकी आधारशिला है । कर्म ही संस्कारद्वारा कर्मफलकी उत्पत्ति करता है । बौद्ध 1 कर्मफलनियन्ता ईश्वरको नहीं मानते ।
जैन मतानुसार कर्म एक जागतिक व्यापार है। कर्म स्वयं ही, ईश्वरसे निपेरक्ष, कर्मफल उत्पन्न करनेमें समर्थ है। कभी कभी चाहे किन्हीं विशेष कारणोंसे कर्मका फल दिखलाई न दे या उसका अनुभव न हो, परन्तु कर्मका फल अनिवार्य है । यह जैन सिद्धान्तका सार है। जैन सिद्धान्तानुसार कर्म न तो केवल पुरुषकृत प्रयत्न ही है और न ही निःस्वभाव नियममात्र है। कर्म पुद्गलस्वभाव अर्थात material