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________________ जिनवाणी (८) आयुप्यकर्म, यह जीवकी आयुष्यका निर्माण करता है । ज्ञानावरणीय कर्मके पांच मेद है । दर्शनावरणीयके नौ भेद हैं। मोहनीयके २८ भेद है । अन्तरायकर्म ५ प्रकारका है । वेदनीय २ प्रकारका होता है । नामकर्मके ९३ भेद हैं । गोत्रकर्म २ प्रकारका होता है । आयुषकम ४ तरहका होता है। इस प्रकार आठ प्रकारके कर्मपुद्गल १४८ भेदोमें विभक्त हो जाते हैं । जैन मतानुसार जीवका प्रत्येक भाव अथवा प्रकृति कर्मपुद्गल-जनित होती है। जीव-शरीरकी अस्थि भी अस्थिकर्मद्वारा निश्चित होती है । जैन शास्त्रोंमें उपरोक्त १४८ प्रकारके कर्मोका विस्तृत वर्णन है। ज्ञानावरणीयादि अष्टविध कौके जैन दार्गनिकोने 'घाती' तथा 'अघाती' नामसे दो मेद किये हैं। इनमें ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय कर्म घाती कर्म हैं तथा वेदनीय, नाम, आयुष तथा गोत्र ये अघाती कर्म हैं। कर्म आश्रवके कारण जीव बन्धनमें पड़ता है अर्थात् कर्मबन्ध कर्मका अनुसरण करता है। बन्धकी प्रकृति उपरोक्त अष्टविध कर्मप्रकृतिके अनुरूप होती है । बन्धकी स्थितिका आधार कर्मको स्थिति है। किस कर्मका स्थितिकाल कितना होता है यह भी जैन दार्शनिकोंने बतलाया है । कर्मको फल देनेवाली तीन अथवा मन्द शक्ति पर बंधके अनुभव [रस ] या ' अनुभाग 'का आधार रहता है। जैन दर्शनमें कर्मको जोवविरोधी-पुद्गलस्वभावी अजीव द्रव्य माना गया है। वह जीवके साथ किस प्रकार मिलता है इसका संक्षिप्त
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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