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जैन दर्शनमें कर्मवाद वर्गणा रागद्वेषाभिमूत जीव-पदार्थमें आश्रव प्राप्त करती है, और आश्रवके परिणाम स्वरूप जीव बन्धनमें पड़ जाता है । जैन शुद्ध जीवको शुद्ध जलकी और कर्मको मिट्टीकी उपमा देकर कहते है कि संसारी अथवा बन्धनग्रस्त जीवोंको गदले पानीके समान समझना चाहिये। गदले पानी से मिट्टी निकाल दें तो वह शुद्ध-निर्मल जल हो जाता है। इसी प्रकार सांसारी जीवसे कर्मरूपी मल दूर हो जाय तो वह जीव भी अपनी स्वाभाविक शुद्ध, मुक्त और बुद्ध अवस्था प्राप्त कर लेता है।
जैन कर्मपदगलको आठ भागोंमें विभक्त करते हैं(१) ज्ञानावरणीय कर्म, ये कर्म ज्ञानको ढक लेते है।
(२) दर्शनावरणीय कर्म, ये जीवके दर्शनगुणको आन्छन किये रहते है।
(३) मोहनीय कर्म, ये आत्माके सम्यक्त्व अथया चारित्र गुणको दवाए रहते है। [याने अनन्त आनन्दको दबाता है।]
(१) अन्तराय कर्म, ये जीवकी स्वाधीन शक्तिमें अन्तरायरूप होते है।
(५) वेदनीय कर्म, इनके कारण जीव संसारमें सुखदुःखका अनुभव करता है।
(६) नामकर्म, यह कर्म जीवकी देव, मनुष्य, लियच आदि गति जाति शरीरादिका निर्माण करता है। -
(७) गोत्रकर्म, इस कर्मसे जीव उच्च अथवा नीच गोत्रमें जन्म ग्रहण करता है। .