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जिनवाणी कर्मको केवल पुरुषकृत प्रयत्न नहीं मानता और न ही वौद्धोके समान निःस्वभाव नियममात्र भी मानता है। कर्म वस्तुतः जड़ पदार्थ है
और आत्माके समान ही स्वाधीन एवं जीवविरोधी द्रव्य है । अंग्रेजीमें जिसे Matter कहते है जैन दर्शन कर्मको लाभग उसीके समान एक द्रव्य मानता है । जीवका और कर्मका स्वभाव एक नहीं है। दोनोंका स्वभाव भिन्न है। जीवके साथ मिल कर कर्म उसकी वन्धनग्रस्त सांसारिक अवस्थाका कारण बन जाता है। कर्मका निवारण होनेसे सांसारिक जीव मुक्त हो जाता है। पंचास्तिकायमें कहा गया है कि
"जीवा पुग्गलकाया अण्णोण्णागाढगहणपडियद्धा। काले विजुज्जमाणा सुहृदुमक्खं दिति भुजति ॥"
"जीव और कर्म-पुद्गल परस्पर गाढ रूपमें मिल जाते हैं। समय आने पर वे पृथक् पृथक् भी हो जाते है । जब तक जीव और कर्मपुद्गल परस्पर मिले रहते है तब तक कर्म सुख दुःख देता है और जीवको वह भोगना पड़ता है।"
कर्मक विषयों जैन दर्शनमें खूब विस्तारपूर्वक चर्चा की गई है। कर्म पुद्गल स्वभाव Material है और कर्मरूपी अजीव द्रव्यके साथ चैतन्यरूप जीव-पदार्थ किस प्रकार मिल जाता है, इन सब बातोंका वर्णन जैन दर्शनकारोंने अत्यन्त उत्तम रीतिसे किया है। वे कहते हैं कि, यह विश्व सूक्ष्मातिसूक्ष्म 'कर्मवर्गणा' नामक कर्मद्रव्य और चेतनस्वभाव जीव-पदार्थसे भरपूर है । जीव स्वभावत शुद्ध, मुक्त, बुद्ध स्वभाववाला होने पर भी रागद्वेष ग्रस्त हो जाता है, इससे कर्मवर्गणामें भी एक ऐसा अनुरूप भावान्तर हो जाता है कि जिससे समस्त कर्म