________________
७३
जैन,पर्शममें फर्मवाद वर्णन ऊपर किया गया है। यहां यह बात याद रखनी चाहिये कि जीव साक्षात् सम्बन्धसे कमविकारका कारणरूप नहीं है। इसी प्रकार कर्म भी जीवविकारका कारणरूप नहीं है। कुन्दकुन्दाचार्य कहते है
कुचं सगं सहावं अत्ता कता सगस्स भावस्स। न हि पोग्गलकम्माणं इदि 'जिगवयणं मुणेयध्वं ॥ कम्म पि सगं कुम्वदि सेण सहावेण सम्ममप्पाणं ॥
आत्मा अपने स्वभावानुरूप कर्म करता हुवा अपने भावोंका कर्ता रहता है । निश्चयदृष्टिसे आत्मा पुद्गल-कर्मसमूहका कर्ता नहीं है। यह जिनवचन है।
श्रीनेमिचन्द्रजी इस विषयमें अधिक स्पष्टतया कहते हैंपुग्गलकम्मादीण कत्ता ववहारदो दु, निन्छयदो। चेदणकरमाणादा सुद्धनया सुद्धभावाणं ॥
द्रव्यसंग्रह । व्यवहारदृष्टिसे आत्मा पुद्गल-कर्मसमूहका कर्ता है । अशुद्ध निश्चयनयके अनुसार आत्मा रागद्वेषादि चेतन-कर्मसमूहका कर्ता है। शुद्ध निश्चयनयके अनुसार वह स्वकीय शुद्ध भावसमूहका कर्ता है।
. अनंत ज्ञान, अनन्त आनन्द आदि आत्माके स्वाभाविक गुण हैं । शुद्ध नयके अनुसार आत्मा केवल उन समस्त गुणोंका कर्ता अथवा अधिकारी है। सारांश यह कि शुद्ध निश्चयनयके अनुसार आत्माके साथ कर्मपुद्गलका कोई सम्बन्ध नहीं है। तथापि अशुद्ध अवस्थामें आत्मामें रागद्वेषादिका आविर्भाव होता है । . , .