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________________ जैनेंद्र जी के नारी पात्रों की मनोवैज्ञानिक पृष्ठ-भूमि ७५ है चाहे कथा, घटना, क्रम और अभिव्यक्ति की शैली में भले ही कुछ थोड़ी बहुत भिन्नता हो, परन्तु सबके अन्तर में एक ही भाव तन्तु स्थित है। जैनेन्द्र जी के नारी चित्रण में प्रारंभ से अन्त तक एक ही टक मिलती है। उनके अधिकांश नारी चरित्र भले घर की मध्यम अथवा उच्च मध्यम वर्ग की महिलाएं हैं। सबसे बड़ी विचित्रता यह है कि जैनेन्द्र के सभी नारी पात्र अपने पति के अतिरिक्त पर-पुरुष की ओर आकर्षित होते हैं। इस प्राकर्षण का प्रमुख स्रोत फायड का यौनवाद ही है । सामाजिक और गार्हस्थ्य जीवन का असंतोष भी इस प्रकार के चित्रण के लिए उत्तरदायी हो सकता है, परन्तु प्रधान रूप से इसका कारण यौनाकर्षण ही है । जैनेन्द्र के अधिकतर नारी पात्र मानसिक द्वन्द्व से अाक्रान्त हैं। इस मानसिक द्वन्द्व का कारण कुछ भारतीय समाज की संस्कार-जन्य-परिस्थितियाँ भी हैं। उनके नारी-पात्रों के पर-पुरुष आकर्षण का क्या रहस्य है, यह भी अवचेतन स्थित कुछ ऐसी कुठानों से संबंध रखता है जिनका विकास वैयक्तिक जीवन की परिस्थितियों पर आश्रित है। एक बार नारद मुनि ने भी द्रौपदी से सतीत्व के संबंध में प्रश्न पूछा था। द्रौपदी ने अन्त में उत्तर दिया कि 'मेरे पाँच सुदृढ़ वीर और विक्रमी पति हैं, परन्तु अाज भी मुझे छठे पति की स्पृहा बनी है।' जैनेन्द्र जी के नारी पात्रों के अन्तर में भी यही भावना कार्य करती दीख पड़ती है । नारी पात्रों के यथार्थवादी चित्रण तथा अवचेतन स्थित मानसिक ग्रंथियों का उद्घाटन करते समय कहीं-कहीं जैनेन्द्र जी अति यथार्थवादी भावना की अोर भटक-से गये हैं। पाश्चात्य नारी की बात तो नहीं कह सकता, पर भारतीय नारी तो यौन-जीवन के संबंध में निर्लज्जता पूर्वक बातचीत नहीं कर सकती। मानव जीवन का कुछ घरिणत पक्ष भी है। मानव यदि बहुत ऊंचा उठ सकता है तो गर्त के अतलतम स्थान तक भी पहुँच सकता है, परन्तु साहित्य-सर्जन का कुछ प्रयोजन होता है, इसका कुछ उद्देश्य होता है । उसके द्वारा भावों, विचारों का परिष्कार होता है । साहित्य के माध्यम से यदि अभ्युदय का मार्ग न प्राप्त हो तो कम से कम सत्यासत्य की दृष्टि तो प्राप्त होनी ही चाहिये । अतः यथार्थ चित्रण के समय भी जीवन के उन अवांछित पक्षों की उपेक्षा तो करनी होगी जो दूषित संस्कार को बढ़ावा देते है । पतिता से पतिता नारी भी अपने अवचेतन में स्थित भावनाओं को इस प्रकार नहीं व्यक्त करेगी कि समाज का प्रत्येक प्राणी उससे घृणा करने लगे । वह अपने दौर्बल्य को निर्लज्जता का जामा नहीं पहना सकती । जैनेन्द्र जी की 'बुधिया' कुछ इसी प्रकार का चरित्र है । वह पर-पुरुप से कहती है- 'दादा हर किसी
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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