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जैनेन्द्र : व्यक्तित्व श्रौर कृतित्व
स्वभाव, विचार और उसकी मानसिक गतिविधि का वर्णन करता रहा है। अतः उसका चित्रण बिलकुल सच्चा है, कैसे कहा जा सकता है। पुरुष अपनी भावना की अथवा नारी से जिस प्रकार की भावना की अभिव्यक्ति की अपेक्षा करता रहा है, उसका वह अपने चित्रण में प्रारोपण करता रहा है। स्पष्ट है कि इस आकर्षण में कुछ न कुछ यौन तत्त्व भी वर्तमान रहता है, चाहे वह व्यक्त रूप में हो चाहे अव्यक्त रूप मे । फ्रायड ने इस आकर्षण का द्वार मुक्त कर दिया और पश्चिम की नयी हवा ने इस तत्त्व को साहित्य का एक प्रमुख भ्रंश बना दिया है ।
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प्रेमचन्द युगेतर साहित्य में जैनेन्द्र जी का प्रमुख स्थान है । वे संभवत: पहले कथाकार हैं जो आदर्शों और उपदेशकों की सीमा का प्रतिक्रमण कर यथार्थ के धरातल पर अपने पात्रों का ईमानदारी के साथ चित्रण करने की ओर अग्रसर होते हैं । वे स्नेह का वर्णन करते हैं, परन्तु सत्य से उसका सम्बन्ध नहीं छूटता । यथार्थ की पीठिका पर वे स्नेह की अभिव्यक्ति करते हैं और उनके पात्रों, विशेषकर नारी पात्रों में इसका क्रमिक विकास भी दीख पड़ता है । आज के मनोविज्ञान का फ्रायडीय यौनवाद से बड़ा घनिष्ठ सम्बन्ध हो गया है । परिणामत: जैनेन्द्र जी के मनोविश्लेषण पूर्ण चित्रण भी फ्रायडीय यौनवाद के घेरे से बाहर नहीं निकल सके हैं । हमारी संस्कृति का काम' शब्द बड़ा व्यापक है । गार्हस्थ्य और सामाजिक जीवन में सांसारिक अभ्युदय के जितने भी प्रयत्न हैं, वे हमारे यहाँ 'काम' के अन्तर्गत आते हैं । यौनाकर्षण और 'काम' में इस प्रकार थोड़ा अन्तर स्वीकार करना होगा | जैनेन्द्रजी के चरित्रों में यौनाकर्षण है और इस समस्या को ही लेखक ने अनेक प्रकार से व्यक्त करने की चेष्टा की है । फ्रायडीय विचारधारा के समान ही जैनेन्द्र जी भी 'यौनतत्त्व' को प्रमुखता देते हैं और उसके महत्त्व को स्वीकार करते हैं— 'उन नामों के नीचे जाकर उन दोनों में केवल स्त्री रह जाती है, दूसरा पुरुष रह जाता है । प चलन व्यवहार में चलने वाले, नाते-रिश्ते असत्य वस्तु नहीं हैं, पर प्राणी के प्राण में बहुत गहरे जाकर मानों वे सब कुछ ऊपर सतह पर ही छूट जाते हैं
( सुनीता - पृष्ठ १०० ) ।
जैनेन्द्र के कथा-साहित्य में फ्रायड का यौनवाद स्पष्ट है, परन्तु इसके बावजूद उन्होंने अपना स्वतन्त्र व्यक्तित्व बनाये रखा है । वे फ्रायड के यौनवाद की उच्छृंखलता में बह नहीं गये हैं । उनके चरित्र यौनवाद के चंगुल में फँसकर निरीह नहीं हुये हैं । उन्होंने बड़ी शक्ति के साथ उसका सामना किया है और निरन्तर ऊपर उठने का प्रयत्न करते रहे हैं । उनका उपन्यास साहित्य एक ही भाव की अनेक रूप में अभि
व्यक्ति करता रहा है । यह भाव उनके अवचेतन की किसी कुंठा का ही परिणाम