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डाक्टर मुकुन्ददेव शर्मा जैनेन्द्र जी के नारी पात्रों की मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि
प्रेमचन्द युगेतर कथा-साहित्य के हाथ से आदर्श की रज्जु छूट गयी और वह फ्रायडीय यथार्थवाद की ओर उन्मुख हुआ । फ्रायडीय यौनवाद ने भारतीय 2.थार्थवादी साहित्य को अत्यधिक प्रभावित किया । फ्रायडीय यौनवाद कोई नयी कल्पना हो, यह बात नहीं है । यौनवाद केवल नये प्रावरण तथा नये 'लेबल'' के साथ साहित्य-क्षेत्र में पुनः प्रतिष्ठित हुआ है । हमारे संस्कार नारी और पुरुष को एक दूसरे का पूर्णतः प्रपूरक मानते हैं । यह अद्धींग की भावना केवल सिद्धान्त-जन्य नहीं है। वारतव में एक दूसरे के प्रभाव में अपूर्णता रह जाती है । नारी और पुरुष का मानसिक और शारीरिक कुछ ऐसा सम्बन्ध है कि वह पृथक नहीं किया जा सकता।
हमारा सम्पूर्ण वांग्मय स्थूल रूप से दो प्रकार के साहित्य में विभक्त किया जा सकता है । प्रथम प्रकार के साहित्य में नारी का अनुरक्ति पूर्ण वर्णन मिलता है
और इस प्रकार के वर्णनों में उत्साहातिरेक के कारण अनेक प्रकार के ऊहात्मक वर्णन मिलते हैं । कहीं-कहीं ये चित्र उपहासात्मक हो जाते हैं । दूसरे प्रकार का साहित्य विरक्ति पूर्ण है । इस प्रकार के साहित्य को सुविधा के लिये भक्ति पूर्ण भी कहा जा सकता है । विरक्ति पूर्ण साहित्य में भी नारी का वर्णन बहुलता के साथ मिलता है । इस क्षेत्र में नारी की अधिकतर व्याज-स्तुति मिलती है । नारी के प्रति विरक्ति उत्पन्न करने के लिए उसकी तथा उसके रूपादि की अनेक प्रकार से निन्दा की जाती है, परन्तु यह निन्दा हमारे अवचेतन में स्थिति नारी के प्रति आकर्षण का व्यक्त रूप में रेचन मात्र है। दोनों प्रकार के वर्णनों में थोड़ा-सा अन्तर है। एक अपनी भावना को सहज रूप में व्यक्त करता है और उसकी अभिव्यक्ति में इस प्रकार लिप्त होता है कि वह यथार्थ से दूर चला जाता है । दूसरा निन्दा के सहारे अवचेतन स्थित अपनी कुठानों का विरक्ति के नाम पर ऐसा वर्णन करता है कि उसमें अस्वाभाविकता आ जाती है । दोनों वर्णन में रस लेते हैं और व्यक्त तथा अव्यक्त रूप से संतुष्टि का अनुभव करते हैं । कहने का तात्पर्य यह है कि नारी, साहित्य में वर्णन का एक प्रमुख विषय रही है । पुरुष अपनी भावना तथा अपनी अनेक प्रकार की वृत्तियों की संतुष्टि के लिये उसका अनेक प्रकार से वर्णन करता रहा है । अतः पुरुष नारी के