SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 97
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व से पंगा ले लेते हैं और जा के ताड़ी में फूक देते हैं। मां गयी, तब से यही हाल है। मैं अपने बस किसी को नहीं लौटाती......... "मैं शिकायत नहीं करती, लेकिन तन कभी बहत पीर दे जाता है।' भारतीय-संस्कृति के लिए इस प्रकार के चित्रण अत्यंत ही अपरिचित से हैं । इन चित्रों में फायड की यौनवादी भावना का नग्न प्रतिनिधित्व हुअा है । लेखक की मौलिक रचना उसकी अनुभूति पर आश्रित होती है। कभी-कभी जीवन के अनेक अनुभव अनेक प्रकार की मानसिक और सामाजिक कठिनाइयों और व्यवधानों के कारण अवचेतन में जाकर रम जाते हैं और उनके द्वारा विचारों का उद्वेलन होता रहता है । समर्थ कलाकार अवचेतन में स्थित इन भावनाओं की, उन ग्रंथियों की तथा कभी-कभी अपनी दमित कुठानों की अभिव्यक्ति विभिन्न प्रकार के पात्रों के सर्जन द्वारा बड़े ही नाटकीय रूप से करता है। यह सर्जन उसकी वेगवती, अवचेतन में स्थित अर्द्ध सुषुप्त भावना का ही परिणाम है । महान् चिंतक भी सृजन के क्षणों में कुछ ऐसी बातें लिख जाते हैं जिसे समाज की दृष्टि ठीक नहीं समझती, परन्तु उनकी दृष्टि से तो वह पूर्णतः सत्य और यथार्थ होता है, क्योंकि वह उनकी अमूल्य अनुभूति द्वारा उत्पन्न होती है । इस प्रकार की कृतियों के प्रति कृतिकार की बड़ी ममता भी होती है। परिणामतः उसे अन्यथा समझ सकने की क्षमता या शक्ति उसमें नहीं रह जाती। यही नहीं, इस धरातल पर पहुँचने पर उनके लिये कुछ भी गोप्य अथवा अगोप्य नहीं रह जाता। वास्तविक कलाकार वही है जो अपनी अनुभूतियों का ईमानदारी के साथ वर्णन करता है, परन्तु साथ ही उसे इसका भी ध्यान रखना चाहिये कि उसकी कलाकृति उसके वैयक्तिक जीवन तक ही सीमित नहीं रहती। वह तो समाज का एक अंश हो जाती है। जैनेन्द्र जी ने हिन्दू नारी के चार प्रमुख चित्रों का वर्णन किया है। वे हैंकट्टो, सुनीता, कल्याणी और मृणाल । इन सब चित्रणों में मानसिक ग्रंथियों का ही प्राधान्य है । उनके पात्र सिद्धान्तों और विचारों के वात्याचक्र में न फंसकर साधारण जीवन की ओर उन्मुख होते दीख पड़ते हैं । वे जीवन को सुखी रूप में जीना चाहते हैं और उसके लिये प्रयत्नशील दिखलाई पड़ते हैं । उनमें यदि दुर्बलताएँ हैं तो वे उनको आदर्शवाद के प्रावरण से आच्छादित नहीं करना चाहते । वे उसे स्पष्ट रूप से स्वीकार करते हैं और उससे ऊपर उठने का साधन हूँढते हैं । जैनेन्द्र जी के कथा साहित्य में मनोविश्लेषण की उपर्युक्त प्रक्रिया का क्रमिक विकास दिखलाई पड़ता है । प्रारंभिक रचनाओं में जहाँ उन्होंने अपनी वैयक्तिक
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy