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जैनेन्द्र के उपन्यास - साहित्य में शिल्प रूप
को वर्णन से फुला दिया गया है, कहीं लम्बा-सा रिक्त छोड़ दिया है, कहीं बारीकी से काम लिया है, कहीं लापरवाही से, कहीं हल्की धीमी कलम से काम लिया है, कहीं तीक्ष्ण और भागती भाषा से...।"
“परख” का नायक सत्यधन पहले अपनी बाल विधवा कट्टो नाम की एक शिष्या के प्रति गहराई से आकर्षण का अनुभव करने के पश्चात् अपने मित्र बिहारी के परिवार के सभी सदस्यों से सुपरिचित हो जाता है । भगवद्दयाल उसका विवाह गरिमा से करना चाहते हैं । बिहारी की भी इसमें सहमति होती है, परंतु सत्यधन स्वयं इस विषय में अनिश्चित रहता है । अपनी बाल परिचित कट्टो के प्रति स्नेह की भावना उसे दुविधा में डाले रहती है। बिहारी को यह स्थिति मालूम होती है और कट्टो भी परिस्थिति को समझती है । वह सत्यधन का विवाह गरिमा से हो जाने देती है । फिर बिहारी और कट्टो भी परस्पर आकर्षण के पश्चात् एक प्रकार का आदर्शवादी समझौता कर लेते हैं । इस प्रकार से इन लोगों के संबंधों की जो परिगति इस उपन्यास के अन्त में दिखाई देती है, वह उस जीवन-दर्शन का स्पष्ट रूप प्रस्तुत करती है, जो लेखक क्रमशः निर्मित करता रहा है ।
उपर्युक्त कथन की सत्यता और सार्थकता का प्रमाण लेखक की दूसरी औपन्यासिक कृति 'सुनीता' है । 'परख' से इसमें दृष्टिकोरणगत तथा प्रस्तुतीकरण गत पर्याप्त साम्य मिलता है । इस उपन्यास में भी त्रिकोणात्मक रूप से कथा का विकास हुआ है । इस उपन्यास में तीन चरित्र - सुनीता, हरिप्रसन्न तथा श्रीकांत प्रधान हैं । घटना तत्त्वों की बहुलता न होते हुये भी इस उपन्यास के पात्रों का चारित्रिक खिंचाव ही कथा को विकास की ओर अग्रसर करता है तथा उसमें नये सूत्रों को उपजाता है । इस प्रकार से इस उपन्यास के कथानक का मूल आधार इन्हीं तीन प्रधान पात्रों के त्रिकोणात्मक चरित्र ही हैं और कथा के निर्देशक सूत्र भी पात्रों की प्रवृत्ति के प्राधार सूत्र ही हैं ।
सुनीता' की कथा का आरंभ ही एक ऐसे दम्पति की परिस्थिति के उपस्थितीकरण से होता है, जिनके चरित्र रहस्यात्मक सूत्रों से निर्दिष्ट होते हैं । सुनीता र श्रीकांत का विवाह हुये तीन वर्ष व्यतीत हो चुके हैं, परंतु वे अभी तक निसंतान है । उनके जीवन में कभी-कभी नीरसता की प्रतीति का यही कारण है । यह परिस्थिति कथानक की पृष्ठभूमि के रूप में लेखक ने प्रस्तुत की है, क्योंकि कथा का जो विकास आगे हुआ है, उसके संदर्भ में यह विशेष अर्थ रखती है । श्रीकांत बहुधा अपने मित्र हरिप्रसन्न का स्मरण और चर्चा करता है । वह उसे पुराने पते पर पत्र भी लिखता है, जो लौट आता है । एक बार वह उसे प्रयाग में दूर से देखता भी है, परंतु भीड़ के कारण उससे मिल नहीं पाता । इस प्रकार के संकेत उनके संबंधों के विषय में कौतूहल जाग्रत करते हैं। बाद में कथानक में काफी नाटकीयता के समा