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________________ डाक्टर प्रतापनारायण टंडन जैनेन्द्र के उपन्यास-साहित्य में शिल्प-रूप जैनेन्द्र के उपन्यासों में कथा-शिल्प के जो रूप मिलते है, उनमें एक विचित्र प्रकार की समरूपता विद्यमान है । बाह्य रूप से देखने पर उनका संयोजन ऐसा प्रतीत होता है, जैसे वे पर्याप्त भिन्नता लिये हुये हों, परंतु यथार्थ में वैसा नहीं है । जैनेन्द्र के कथा-शिल्प का यही आकर्षण उनके उपन्यासों की प्रमुख विशेषताओं में से एक है। परंतु इस कथन का तात्पर्य यह नहीं समझना चाहिये कि जैनेन्द्र के सभी उपन्यास कथात्मक संगठन की दृष्टि से बहुत अधिक प्रौढ़ता लिये हुये हैं, अथवा उनमें कोई असाधारण तत्व निहित है । वास्तव में जैनेन्द्र के उपन्यासों का महत्त्व और ख्याति केवल दो कारणों से ही मुख्यतः है । एक तो कथा शिल्प के नवीन और आकर्षक रूपों के प्रयोग के कारण और दूसरे उपन्यास में कुछ अन्य तत्त्वों के समावेश के कारण, जिनमें मनोविश्लेषणात्मक तत्व मुख्य हैं । इस निबंध में हम केवल प्रथम की ही चर्चा करेंगे, अर्थात् जैनेन्द्र के विविध उपन्यासों के आधार पर हम यह देखेंगे कि उनमे शिल्प-रूप की दृष्टि से क्या नवीनता मिलती है । सन् १९२६ में प्रकाशित जैनेन्द्र के सर्वप्रथम उपन्यास 'परख' की कथा का प्राधार यद्यपि सत्यधन, कट्टो, बिहारी और गरिमा नामक पात्र -पात्रियां है और इनसे यह आभास होता है कि कथा का विकास चतुर्कोणात्मक रूप से हो रहा है, परंतु यथार्थ में वैसा नहीं होता । इसमें एक ही मुख्य कथा है । उपन्यास के सभी प्रधान पात्रों का संबंध इसी मुख्य कथा से है और वे सभी उसकी गति को प्रभावित करते और स्वयं भी उसी से परिचालित होते हैं । अप्रधान कथा सूत्रों की इसमें यथासंभव उपेक्षा की गयी है, परंतु इसमें किसी असामान्य शिल्प रूप के ढांचे पर कथानक का निर्माण नहीं किया गया है । यहाँ तक कि द्वितीय-कोटि के पात्रों में विपिन, भगवद्दयाल और उनकी पत्नी आदि जो हैं, वे अधिक अर्थपूर्ण नहीं लगते । कथा के किसी गंभीर उलझाव से उनका गहरा संबंध नहीं मालूम होता । मुख्य पात्र अधिकांशतः आत्म केन्द्रित हैं, इसलिये कथा का विकास प्रायः वैयक्तिक रूप में ही होता है । लेखक ने स्वयं भी लिखा है--' मैंने जगह-जगह पर कहानी के तार की कड़ियाँ तोड़ दी हैं । वहाँ पाठक को थोड़ा कूदना पड़ता है और मैं समझता हूँ, पाटक के लिये यह थोड़ा पायास वांछनीय होता है, अच्छा लगता है. कहीं एक साधारण भाव
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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