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________________ जैनेन्द्र के स्वतंत्रता बाद के उपन्यास बुझाते, मित्र लोग ढाढस देते, पर वह संभल न पाती । शायद संभल सकती ही न थी और पति के साथ रहकर उसे शांति म थी। ऊपर से मुस्कराने-हँसने पर भी उसके दिल का दर्द जाग्रत रहता । कुछ ही दिनों के बाद बात यहाँ तक बढ़ गई कि उसे ऐसे लगने लगा कि वह अधिक समय तक न जियेगी। उसे जीना ही न चाहिए। किंतु एक और प्राणी का जीवन उसमें समाया हुआ था। इसलिए वह उसके आने की राह देखने लगी और ठीक जिस दिन उसके लड़का हुआ, वह उस पार हो गई। इस कहानी को जैनेन्द्र जी ने अपनी अनुपम शैली में एक वकील द्वारा कहलवाया है जो कल्याणी और उसके पति के बहुत बड़े मित्र थे । इसमें कोई सन्देह नहीं कि कल्याणी जैसी सुसंस्कृत और कोमल हृदय नारी की तस्वीर खींचने के लिए जिस सहानुभूति की आवश्यकता थी, लेखक उसी को काम में लाए हैं । पति की बात कहने में भी लेखक साहित्यिक कसौटी पर पूरे उतरते हैं । 'कल्याणी' कला की एक बढ़िया चीज़ है, यह तो मानना ही पड़ेगा। हाँ, कही-कहीं लेखक अपनी दार्शनिकता में आवश्यकता से अधिक उलझ गए हैं, जिससे पाठक के ऊबने का भय है, किंतु जैनेन्द्र जी के लिये यह सब कुछ छोड़ देना संभव नहीं। इसलिए उनकी कला का रसास्वादन करने वालों को इतना तो सहना ही होगा। और, प्राज तो वे कथा-साहित्य से ही विमुख हो गए हैं। पूर्ण रूपेण दार्शनिकों और विचारकों की पंक्ति में जा बैठे हैं । इसलिए कथा-क्षेत्र में जो कुछ भी हमें उनसे मिल चुका है, प्रब उसी पर संतोष करना होगा।
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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