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जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व
वेश के बाद दोनों मित्रों की दिल्ली में भेंट हो जाती है । वह उसे घर ले आता है । हरिप्रसन्न सुनीता से परिचित होता है और पति-पत्नी का चित्र भी बनाता है । श्रीकान्त उसे बाँध कर रखना चाहता है और सुनीता को भी अपना उद्देश्य बता देता है । एक बार श्रीकांत के बाहर जाने पर हरिप्रसन्न सुनीता के पास आता है और अपने दल के क्रांतिकारी युवकों का नेतृत्व करने की प्रार्थना करता है । बाद में कथानक में कुछ असाधारण मोड़ आते हैं और उनके फलस्वरूप नारी चरित्र की विविध केन्द्रीय प्रतिक्रियात्मक संभावनाओं के सूचन के संकेत मिलते हैं । अन्त में कथा में एक प्रकार की शिथिलता-सी ग्रा जाती है और उसी अनिश्चयता में उसका अंत हो जाता है । कथानक की नाटकीयता और कहीं-कहीं टपटापन ही उसे एक आकर्षरण देता है |
जैनेन्द्र के प्रारंभिक उपन्यासों में कथानक के शिल्प रूपों में प्रयोगात्मक तथा नवीनता की दृष्टि से " त्यागपत्र " का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है । इस उपन्यास में विविध स्थलों पर जीवन की मार्मिक, सहज और तीव्र अनुभूतियों की वेदना
अभिव्यक्ति मिलती है। हिंदी के ग्रात्मकथात्मक शैली में लिखे गये उपन्यासों में यह कृति अन्यतम है । इसीलिये कलात्मक उत्कृष्टता के साथ-साथ इस उपन्यास का महत्त्व शिल्प के नवीन प्रयोग की दृष्टि से भी है । इस उपन्यास की मुख्य पात्री मृणाल नामक अभागिनी युवती है, जिसके करुरण जीवन की गाथा का वर्गान प्रमोद नाम के उसके भतीजे ने किया है । वह अपने भविष्य के सुनहरे सपने देखने वाली एक शिक्षित युवती है। अपनी सहेली शीला के भाई से वह प्रेम भी करती है । श्रागे चल कर परिस्थिति गंभीर हो जाती है, क्योंकि उसके घरवालों को इस प्रेम व्यापार का पता चल जाता है और ये उसका विवाह तुरंत दूसरे व्यक्ति से कर देते हैं । सरल हृदय मृणाल अपने पति से प्रपंच नहीं कर पाती और दुश्चरित्र समझी जाकर एक कोयले वाले के साथ रहने को बाध्य होती है । प्रमोद की सहायता वह सदैव अस्वीकृत कर देती है । वह स्वार्थवश इसे ही मान लेता है और उन्नति करके एक जज के प्रतिष्ठित पद पर पहुँच जाता है । फिर वह प्रायश्चित के रूप में अपने पद से त्यागपत्र दे देता है और कथा का अंत होता है । इस प्रकार से कथा के अंतिम भाग को उपन्यास के आरंभ में प्रस्तुत किया गया है, जो कालगत विशेषताओं की दृष्टि से हिंदी उपन्यास के क्षेत्र में एक अभिनव प्रयोग था । इस सामान्य अंतिम कथांश को आरंभ में प्रस्तुत करने के पश्चात् फिर वास्तविक कथा का आरंभ हुआ है । कथा की समाप्ति पर फिर अंतिम भाग प्रारंभिक कथा से सम्बद्ध किया गया है । इस प्रकार से इस उपन्यास से एक नयी शिल्प परम्परा का आरंभ होता है । यहाँ पर इस तथ्य का उल्लेख करना भी असंगत न होगा कि अनेक परवर्ती उपन्यासकारों ने इसी शिल्प