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________________ ६२ जैनेन्द्र : व्यक्तित्व श्रौर कृतित्वं बन कर प्रकट होती है । जैनेन्द्र की इन कृतियों में निश्चय ही बुद्धिवाद को भावात्मक बुद्धिवाद कहना अधिक रुचता है और गाँधीवाद की बौद्धिकता से उसका अन्यतम साम्य है | इतना ही नहीं । इन दोनों रचनाओं में गाँधीवादी दर्शन का अव्याहत कौशल से सम्पोषरण किया गया है । वस्तुतः लेखक दो पृथक् वृत्तियों का संघर्ष और परिणाम दिखाना चाहता है । एक वृत्ति है हिंसा की और दूसरी है अहिंसा की । हिंसा घृणा, वैर और विद्वेष की पोषक है; और अहिंसा क्षमा, प्यार और मनुष्यता की पोषक है । हिंसा में बदले की भावना बद्धमूल रहती है और उसके रचनात्मक संकल्प भी विध्वंस की शैली के होते हैं । पर हिंसा तो परताड़न में नहीं, आत्म-ताड़न मे विश्वास रखती है । इसीलिये बदले का वहाँ स्थान ही नहीं । अहिंसा में जहाँ हठात् विनाश का प्रवेश भी हो जाता है, वहाँ भी सुन्दर नव-निर्मारण का उदय होता है । जैनेन्द्र यन्त्र-युग की इस आसुरी सभ्यता को, जो अणुबम और हाईड्रोजन बम के पराक्रमों में भूली है और नरसंहार जिसके लिये बाल-कौतुक भर है, से हिंसा की र ही उन्मुख करना चाहते हैं। उन्होंने 'सुखदा' और 'विवर्त्त' दोनों उपन्यासों में जीवन के संक्षेप को लेकर ऐसे उदाहरण प्रस्तुत किये हैं, जिनसे सहज ही जाना जा सकता है कि जीवन का सुख विधान कहाँ है ? कल्याण का मार्ग कौन-सा है ? इसमें सन्देह नहीं कि जैनेन्द्र की मूल विचारधारा सर्वत्र एक है । इससे उसके आवरण में भी स्थूल सादृश्य परिलक्षित होता है । आशय यही है कि 'सुनीता' से लेकर 'विवर्त्त' तक उनके उपन्यासों में क्रान्तिकारी चरित्रों का समावेश एक अनिवार्यसा जान पड़ता है । जैनेन्द्र सिद्ध कथाकार हैं । वे जो कहना चाहते हैं, उसे प्रभावशाली ढंग से कहने को क्षमता रखते हैं । मैं इन दोनों उपन्यासों का उतना ही स्वागत करती हूँ और विश्वास रखती हूँ कि जहाँ सामान्य पाठक इनमें सम्पूर्ण कथारस और मनोरंजकता प्राप्त करेगा वहाँ विचारशील बौद्धिक पाठक इनमें हृदय के साथ-साथ बुद्धि को भी रमा सकेगा । हमारे युग में कथा - साहित्य को विश्व - समस्याओं के सुलझाने का भार अपने ऊपर लेना है । जैनेन्द्र की इन दोनों रचनात्रों ने अपना कर्त्तव्य बड़े सुन्दर ढंग से निभाया, इसमें कोई सन्देह नहीं । क्या ही अच्छा हो, यदि जैनेन्द्र की यह साहित्यिक मुखरता अब मौन से विमुख ही रहे ।
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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