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जैनेन्द्र का द्विरागमन क्तित्व है, सूखदा दोनों की विवशता और दृढता ले कर जन्मी है। यही कारण है कि 'कल्याणी' हमारे युग की नारी के जितने निकट पा सकेगी, उतनी 'सुनीता' नहीं। 'सखदा' परिस्थितियों की असामान्यता के कारण स्वयं असामान्य चारित्रिक सृष्टि के रूप में हमारे सामने आई है, पर असामान्यता के इस छल का बेधन करके देखें तो उसका मन उन्हीं तत्त्वों से बना है जिनसे आज की नारी का, जो महात्वाकांक्षी है, पुरुष से स्पर्धा करती है, स्पर्धा में दृढ़ है पर प्राकृतिक सीमाओं के कारण विवश भी।
'सुखदा' की रचना एक पुरुष कलाकार इतनी सचाई और स्वाभाविकता से कर सका है, इस बात का अचरज मुझे अब भी है, जैसे स्वयं जैनेन्द्र इस उपन्यास की रचना करते समय स्त्री के अन्तस्तल में पैंठ गये थे । ऐसा एकात्मभाव कलाकार अपने चरित्र से स्थापित न कर पाता तो 'सुखदा' के पाठक सुखदा जैसी नायिका पर धिक्कार की वर्षा ही करते । पर अचरज तो इस बात का है कि अपने घर की सीमाओं को भंग करके जीवन की होली खेलने वाली इस नारी के साथ अन्त तक पाठक की निर्मल सहानुभूति बनी रहती है और उसकी पीड़ा में वह पीड़ित हुये बिना नहीं रहता। इस उपन्यास का अन्त जहाँ कला की दृष्टि से अत्यन्त उपयुक्त है, वहाँ पाठक के उस मन की दृष्टि से जो सुखदा के साथ पिस रहा है, अत्यन्त निर्मम भी। जैनेन्द्र की इस निर्मम कला का में स्वागत करने को बाध्य हूँ।
'सुखदा' उपन्यास के सभी चरित्र असामान्य और व्यक्तित्वपूर्ण हैं । मैं उनका चरित्र-चित्रण न करके उपन्यास के उस वैशिष्ट्य का प्रकाशन करना चाहती हूँ, जिसने जैनेन्द्र की इस रचना को समग्र बौद्धिकता और वाद-विधान में भी चरित्र-प्रधान ही बनाये रखा । यही बात 'विवर्त' के विषय में कही जा सकती है।
विवर्त' का जितेन सुखदा का रूपान्तर ही है---कुछ परिस्थितियों के परिवर्तन और स्त्री-पुरुष के प्राकृतिक अन्तर के साथ । जहाँ 'सुखदा' में प्रच्छन्न रूप से घर और बाहर की समस्या लेखक ने समाधान के सहित प्रस्तुत की है, वहाँ 'विवर्त' में भी । सुखदा घर से बाहर की ओर दौड़ रही है और विवर्त' का जितेन बाहर को घर में प्रविष्ट करके घर की सुख सीमा में विश्व की व्याकुलता भर देता है। सुखदा कहीं अपने से हारी हुई है; ठीक उसी तरह जितेन भी अपने से परास्त हैं । शायद ये सुखदा और जितेन हमारी सभ्यता के ही निर्माण हैं, जिनकी सहृदयतापूर्ण विडम्बना के द्वारा लेखक ने उस सभ्यता की भी व.लात्मक ढंग से विडम्बना की है, जिसमें प्रात्महनन, आत्म-वंचना और आत्म-पीड़न पराकाष्टा को पहुँच रहा है; ऐसी पराकाष्ठा जिसमें, भ्रम सत्य को भी भ्रम बना रहा है ।
सच तो यह है कि जैनेन्द्र का लेखन पाठक की मनःप्रीति से अधिक उसके बौद्धिक उत्तेजन के संकल्प से संयत है । पर कला वह है जहाँ बुद्धि हृदय का आग्रह