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________________ श्रीमती रजनी पनिकर जैनेन्द्र का द्विरागमन दस वर्षों के दीर्घ अभंग साहित्यिक मौन के बाद, जैनेन्द्र का सहसा इतना मुखर हो उठना कि 'सुखदा' की सीमा में ही न रह कर 'विवर्त्त' का भी विधान कर डालें, मुझे हिन्दी कथा-साहित्य की ही नहीं, भारत के कथा साहित्य की महत्त्वपूर्ण घटना जान पड़ी और इस घटना को मैं 'द्विरागमन' की तरह सार्थक विशेषत्व और रसमयता से युक्त मानती हूं । उपन्यास का लेखन भी औपन्यासिक घटना हो सकता है, यह कहना हो तो मैं जैनेन्द्र के इस मौन भंग का ही उदाहरण दूँगी, जिसके परिणामस्वरूप राष्ट्रभाषा को दो नूतन और उत्तम रचनाएँ प्राप्त हुई । यद्यपि जैनेन्द्र सदा यह अस्वीकार करते रहे हैं कि वे कहानी की टेकनीक के मर्मज्ञ हैं और कला-कोटि की किसी वस्तु का विधान करते हुए किसी विशेष कौशलका अनुवर्त्तन भी नहीं करते, तथापि उनके समीक्षकों ने एक स्वर से उन्हें कला-कुशल श्री टेकनीक का मर्मज कहा है । जैनेन्द्र इसे अपने प्रति अभियोग ही समझते हैं । सच जो भी हो, पर यह झूठ नहीं कि 'सुखदा' और 'विवर्त्त' उनकी कला- पटुता और टेकनीक-मर्मज्ञता के उत्कृष्ट उदाहरण है । जैनेन्द्र ने अपने साहित्य में सामान्य का अंकन विरल ही किया है । वस्तुतः यह भावुक, परन्तु बौद्धिक कलाकार कर्मलोक से अधिक मनोलोक के रहस्यों का ज्ञाता है । जहाँ कर्म का बाह्य घटाटोप भी इनकी रचनाओं में रहा है, वहां भी उस स्थूलता में मन की सूक्ष्मता अभंग रही है । यही कारण है कि जैनेन्द्र ने सदा असामान्य की सृष्टि की । वे लीक छोड़ कर चले । उन्होंने लोक से अधिक स्वयं को दिया । फलतः उनकी कला में व्यक्तित्व की प्रधानता सर्वोपरि है, इसी व्यक्तित्व ने उनकी शैली को अप्रतिमता दी । जैनेन्द्र के शब्द, उनकी वाक्य रचना, उनका कथा- विधान अपने आप में अनुपम है और इसमें सन्देह नहीं कि साहित्यिक कृतियों की अपार भीड़ में भी जैनेन्द्र की रचनाएँ सहज ही पहचान ली जायँगी । उनका स्वर निराला और निर्भ्रान्त है । जैनेन्द्र के इन दोनों नवीन उपन्यासो में वह निरालापन और निर्भ्रान्तता पूर्णतः सुरक्षित है । 'सुखदा' को ही पहले लें । 'कल्याणी', 'सुनीता' और 'सुखदा' में मुझे एक विकसित परम्परा मिली है । कल्याणी एक विवश व्यक्तित्व है, सुनीता एक दृढ़ व्य( ६० )
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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