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________________ जैनेन्द्रकुमार ५६ प्रेमचन्दजी के सम्बन्ध में किया जाता है । फिर भी तत्त्व या निष्कर्ष की दृष्टि से इन दो कलाकारों में जो अन्तर है, उसके ग्राधार पर यह कहना असंगत न होगा कि प्रेमचन्द की समकक्षता में जैनेन्द्रकुमार को रखना किसी भी साहित्यिक मानदंड के अनुरूप नहीं होगा । जैनेन्द्रजी के सम्बन्ध में दो बातें श्रवसर बड़े प्राग्रह के साथ कही जाती हैं । एक यह कि जैनेन्द्रजी अपने जीवन-दर्शन में गाँधीजी के अनुयायी या गाँधीवादी हैं और दूसरी यह कि कलाकार के रूप में वे श्रादर्शवादी हैं । अपनी असाधारण भावुकता के द्वारा वे सामाजिक जीवन का निरन्तर परिष्कार करने की दिशा में अपनी लेखनी का व्यवहार कर रहे हैं और विशेषकर नारी समाज के प्रति उनकी दृष्टि अत्यन्त उदार है। नारी के प्रति इस महान् सद्भावना के कारण ही जैनेन्द्रजी के उपन्यासों की नारियाँ, वे चाहे जैसा भी सामाजिक व्यवहार करें, सदैव उदात्त ही बनी रहती हैं । कहा जाता है कि इसी कारण जैनेन्द्रजी के चित्ररणों में नारी की परख उसकी सामाजिक स्थिति या श्राचरण से नहीं होती, वह सम्पूर्ण व्यावहारिकता के परे है और सदैव अनुपम गरिमा से मंडित है; किन्तु ये दोनों ही बातें सुसंगत नहीं जान पड़तीं । गाँधीजी अपने दार्शनिक सिद्धान्तों में जितने बड़े आदर्शवादी और अध्यात्मवादी थे, अपने सामाजिक मंतव्यों में उतने ही कठोर साधना- प्रिय और नीतिवान् रहे हैं । उनकी सामाजिक नीतियों और ग्राचरणों पर भावुकता की छाया नहीं थी । हल्की भावुकता से वे कोसों दूर थे । जैनेन्द्र की रचनाओंों में जिन नारियों के दर्शन हमें होते हैं, वे गाँधीजी की नारी - कल्पना से नितान्त भिन्न हैं । रचना के क्षेत्र में जैनेन्द्र न तो गाँधीवादी हैं और न आदर्शवादी हैं । वे ऐकान्तिक, भावुक और कल्पना-जीवी लेखक हैं, जो वास्तविकता के प्रकाश में घूमिल दिखाई देते हैं ।
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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