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चैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व लेखक ने हमारी समाज-विरोधी चेतना को और भी तीन किया है; परन्तु हमारी उक्त चेतना को जागृत करने के लिये क्या यह भी आवश्यक था कि मृणाल के सामाजिक पतन को भी दिव्य और लोकोत्तर साधना का नाम दिया जाता ? लेखक के इस अंतिम निर्देश को स्वीकार करने में हम असमर्थ हैं ।
प्रमचन्द को आदर्शवादी कहकर लोग संकीर्ण या गुज़रे जमाने का लेखक कहते हैं; परन्तु प्रेमचन्दजी आदर्शवादी होते हुए भी जीवन के प्रति आस्था और विश्वास से पूर्ण हैं, जब कि जनेन्द्र-जसे लेखकों की दृष्टि अत्यन्त व्यक्तिवादी, तर्कप्रधान और अनिर्दिष्ट है । वाद कोई हो, उसके अन्तर्गत लेखक की जीवनानुभूति उसके उत्कर्ष की विधायक होती है । प्रसिद्ध लेखक अज्ञेय ठीक ही कहते हैं कि 'परवर्ती उपन्यास की अपेक्षा प्रेमचन्द के उपन्यासों में रचनात्मक प्रभाव की सम्भावना अधिक है। क्योंकि प्रेमचन्द का प्रादर्शवाद मानवता में आसक्ति रखता है और वह आसक्ति रचनात्मक प्रणालियों में बाँधी जा सकती है।' प्रेमचन्दजी के उपन्यासों में सामाजिकता का गुण पूर्ण मात्रा में पाया जाता है। उनके पात्र और चरित्र आधुनिक भारतीय जीवन के प्रतिनिधि रूप में चित्रित हुए हैं । उनके निर्माण में रचयिता की दृष्टि सामाजिक विकास की ओर पूर्णतः संलग्न है । प्रेमचन्दजी का अनुभव व्यापक
और विशाल है। उन्होंने अनेकानेक सामाजिक स्तरों से पात्रों और चरित्रों का चयन किया है। उनके साहित्य में व्यक्तिगत मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य-अस्वास्थ्य का प्रश्न नहीं उठता, क्योंकि प्रेमचन्द का साहित्य बहिर्मुख साहित्य है और जीवन के प्रश्नों और समस्याओं से जुड़ा हुआ है । जैनेन्द्र की साहित्य-सृष्टि व्यक्तिमुखी है । उनका सम्बन्ध सामाजिक जीवन के व्यापक स्वरूपों से कम ही है । वे वैयक्तिक मनोभावों और स्थितियों के चित्रकार हैं । जैनेन्द्र के साहित्य में रचयिता की अन्तर्मुखी प्रवृत्ति का पुरा योग है, जिसके कारण रचना के साथ उसके रचयिता की मनोवैज्ञानिक परीक्षा भी अावश्यक हो जाती है । प्रेमचन्द का साहित्य इस प्रकार की परीक्षा से परे है, क्योंकि प्रेमचन्द स्वस्थ और विकासोन्मुख सामाजिक जीवन के चित्रकार हैं । जैनेन्द्र भी यादों की स्थापना करते हैं; परन्तु उनके साहित्य को आदर्शवादी नही कहा जा सकता। वे कल्पना-प्रधान और व्यक्तिवादी लेखक हैं। इन दोनों साहित्य-सरणियों का अन्तर समझने के लिए यह जान लेना भी आवश्यक है कि जैनेन्द्र कुमार सामाजिक जीवन के वास्तविक प्रवाह से दूर जाकर 'पाध्यात्मिक' सूक्ष्मतंत्रों को चित्रित करने का लक्ष्य रखते हैं; परन्तु इस 'प्राध्यात्मिक' चित्रण में उनकी मनःस्थिति पूर्णतः स्वस्थ और तटस्थ नहीं दिखाई देती । जैनेन्द्र सामाजिक जीवन से दूर जाकर जिस साहित्य की सृष्टि करते हैं, उसमें व्यक्ति के मानसिक संघर्ष और उसकी परिस्थितिजन्य समस्याएँ प्रमुख रूप से आती हैं; परन्तु उनका निरूपण करने में लेखक का