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________________ जैनेन्द्रकुमार दृष्टिकोण स्वस्थ और स्पष्ट नहीं है । आधुनिक समाजवादी विचारक प्रेमचन्दजी को हिन्दी का प्रमुख प्रगतिशील लेखक मानते हैं । सामाजिक जीवन से उनके घनिष्ठ सम्बन्ध को सभी स्वीकार करते हैं । जैनेन्द्र कुमार इससे भिन्न व्यक्तिवादी कलाकार हैं । हाल की उनकी रचनाओं में चरित्रों की ऐकांतिकता, जीवन के प्रवाह से पृथक्ता और दूरी अत्यधिक स्पष्ट हो गई है । समाजवादी विचारक जैनेन्द्र को जीवन की वास्तविकता से दूर जाते हए लेखक के रूप में देख रहे हैं । कुछ समीक्षाओं में उनको प्रतिक्रियावादी रचनाकार कहा गया है । इनसे समीक्षकों का तात्पर्य जनेन्द्रजी की उन साहित्यिक प्रवृत्तियों से है, जिनमें वे सामाजिक मूल्यों की अवमानना कर स्वतंत्र और वैयक्तिक मन:तर्कवाद का निरूपण करते दिखाई देते हैं । जैनेन्द्रजी को सामाजिक जीवन से भागने वाला या पलायनवादी भी कहा गया है । नैतिक आदर्शों को जैनेन्द्रजी के साहित्य में कोई स्थिर मान्यता प्राप्त नहीं है । हम रूढिबद्ध सामाजिक नैतिकता के हामी नहीं हैं; परन्तु हम उस मनोविज्ञान को अवश्य समझना चाहते हैं, जो समस्त सामाजिक व्यवहारों में एक प्रश्न-चिह्न लगाकर रह जाता है और बदले में कोई नया निर्देश या रचनात्मक सुभाव नहीं देता। ____ व्यक्तियों और पात्रों का चित्रण यदि एकदम ऐसी भूमि पर किया जाय, जिससे सामाजिक नैतिकता का या प्रचलित व्यवहारों का कोई सम्बन्ध न हो और फिर यह आशा की जाय कि वे पात्र और चरित्र सामाजिक व्यवहारों की कसौटी पर न परखे जायँ, बल्कि उनके लिए सब प्रकार की छूट होते हुए भी वे महान् माने जाएं, तो यह एक अतिशय असाधारण माँग होगी। प्रश्न होता है कि ऐसी असाधारण माँग क्यों ? इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि किसी युग-विशेष में परम्परागत धारणामों और सामाजिक प्रादर्शों के विरुद्ध विद्रोह करने की आवश्यकता हो सकती है और नए नैतिक मूल्य का स्थापन किया जा सकता है। ऐसे क्रांति-युगों में कथाकार का यह धर्म हो जाता है कि वह क्रमागत सामाजिक मूल्यों के स्थान पर नए मूल्यों का निर्देश करे; परन्तु इसका यह अर्थ नहीं होता कि वे नए मूल्य और आदर्श एकदम ही काल्पनिक और असामाजिक हो । विद्रोही कलाकार भी जिस नवीन सामाजिकता का निर्माण करता है, उसमें एक औचित्य और व्यवस्था रहा करती है । जैनेन्द्रजी का विद्रोह इस प्रकार का नहीं है । वे नवीन सामाजिक मूल्यों का निर्धारण नहीं करते; वे तो अपने पात्रों के समाज-विरोधी स्वरूप का एक रहस्यवादी दार्शनिकता के आधार पर समर्थन करते जाते हैं । इसे हम साहित्य सम्बन्धी स्वस्थ रचनात्मक दृष्टि नहीं कह सकेंगे। जिस विद्रोह में रचनात्मकता न हो, ऐसा साहित्यिक कार्य सच्चे अर्थों में क्रान्तिकारी नहीं कहा जा सकता।
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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