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________________ ५४ जनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व ____ 'त्यागपत्र' नामक इनके उपन्यास को ही लीजिए। इस उपन्यास के दार्शनिक अाधार पर स्पष्ट बोध करने के लिए हमें प्रारम्भ में ही यह समझ लेना होगा कि इस उपन्यास में नायिका मृगगाल का चरित्र-लेखन किया गया है और ऊपरी दृष्टि से प्रतीत होने वाले उसके समस्त नैतिक और व्यावहारिक अवगुणों का अपवारण कर उसे एक महान् नारी के रूप में उपस्थित करने का उद्योग किया गया है। इसी उद्योग के साधन के रूप में त्यागपत्र में दार्शनिकता की योजना की गई है। प्रारम्भ में ही हम देखते हैं कि मृणाल विवाह के पूर्व अपनी सखी शीला के घर आती-जाती रही है और शीला के भाई के प्रति उसका आकर्षण भी हो गया है। इसी बीच में उसका विवाह एक ऐसे व्यक्ति से कर दिया जाता है, जो आयु में उससे बहुत बड़ा है और विशेष पढ़ा-लिखा भी नहीं । इस प्रसंग में शीला के भाई के प्रति मृणाल के व्यवहार को एक रहस्यात्मक प्रावरण में ही रख कर लेखक ने अपना काम चलाया है और सारा दोष मृणाल के वयस्क पति पर रख छोड़ा है। दूसरा प्रसंग तत्र उपस्थित होता है, जब मृणाल से रुष्ट होकर उसका विवाहित पति उसे अलग कर देता है और वह असहाय अवस्था में रहने लगती है । यहाँ लेखक ने मृणाल के विवाह-पूर्व आचरण को रहस्यात्मक रीति से छिपाकर उसके प्रति हमारी सम्पूर्ण सहानुभूति प्राप्त कर ली है, किन्तु इस स्थिति में आकर लेखक के सम्मुख मार्ग यह था कि वह मृणाल का नैतिक पतन न दिखाकर उसकी साधनामयी जीवनी का प्रारम्भ करता और मृणाल के चरित्र को नया उत्कर्ष देकर हमारी सहानुभूति को स्थिर रखता; परन्तु लेखक ने उस मार्ग को न चनकर मृणाल का संबंध एक दूसरे व्यक्ति से प्रदर्शित किया है । इस समाज विरोधी और अनैतिक पक्ष की पुष्टि के लिए लेखक ने फिर अपने 'तत्त्वज्ञान' का सहारा लिया है। सामाजिक दृष्टि से परपुरुष-सम्बन्ध एक अपवाद ही है; परन्तु लेखक इस सम्बन्ध में ही मृणाल की जीवन-साधना का दर्शन करता है । हम कह सकते हैं कि यह दार्शनिकता सामाजिक नियमों की विरोधिनी, अस्पष्ट और अत्यन्त गूढ़ है । लेखक इस परिस्थिति में मृणाल की दयनीय दशा और विवशता का मार्मिक चित्र उपस्थित कर हमारी सहानुभूति मृणाल की ओर फिर से प्राकृष्ट करता है । यह कार्य वह अपनी भावुक दार्शनिकता के बल पर करता है । क्रमश: मृणाल गर्हित समाज में गहरी पैठनी जाती है और ज्यों-ज्यों उसका सम्पर्क इस प्राचारहीन समाज से बढ़ता जाता है, त्यों-त्यों लेखक उसके व्यक्तित्व को उत्कर्ष देता और उसे साधना के मार्ग में बहुत ऊँचा उठा हा प्रदर्शित करता है। मृणाल भगवान् की दुहाई देती है और अपनी अवशता में ही अपना कर्तृत्व मानने लगती है। वह स्वतः अपने को किसी अलौकिक उद्देश्य की सिद्धि का निमित्त मानती है और प्रमोद जैसे
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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