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जैनेन्द्रजी का जयवर्धन
विकेन्द्रीकरण की सारी चर्चा बे-मानी हो जाती है ।
जैनेन्द्रजी के इस नव्य मानवतावादी उपन्यास में आज की सामाजिक, राजनीतिक उलझनों का मूल 'स्टेट' और स्टेट के समानार्थक बन जाने वाले या बनाये जाने वाले व्यक्तित्व-पूजक अन्धश्रद्ध जनसाधारण और उनकी म्रियमाण विवेकशक्ति में देखा है । यदि जन-जन के भीतर का मनुष्यत्व जागृत हो जाय, तो अन्ततः किसी 'तन्त्रात्मक जन:न्त्र' या उसके पर्याय के रूप में सुझायी जाने वाली कल्याणप्रद तानाशाही की जरूरत बनी भी रहेगी क्या ? इन्हीं सब बातों के संकेत जैनेन्द्र ने अपने उपन्यास में दिये हैं।
उपन्यास-कला की दृष्टि से, मेरे मत में, हिन्दी में यह पुस्तक एक नया मोड़ उपस्थित करती है। इधर उपन्यास क्षेत्र में प्रचलिकता या प्रादेशिकता अथवा भौगोलिक वैशिष्ट्य को बहुत प्रधानता सामाजिक यथार्थवादियो ने दी है। समाजवादी देशों में ऐसे लेखन की बड़ी प्रतिष्ठा भी है। लेकिन उस आंचालिकता के यथार्थ की अपनी सीमाएँ हैं । उन चित्रों का महत्त्व किसी 'लैंडस्केप' या 'स्नैपशॉट' का सा है । एक और चित्रकला होती है, जो अतीन्द्रिय का मूर्त-विधान करना चाहती है। कई तरह के नाम उन शैलियों को आधुनिकतावाद के अन्तर्गत दिये गये हैं । कोणवादी, बिम्बवादी, उत्तर बिम्बवादी, अतियथार्थवादी, रचनात्मकतावादी (कंस्ट्रक्टिविस्ट) इत्यादि । कविता के क्षेत्र में नये-नये शैली-प्रयोग भारत की भाषाओं में प्रतिष्टित हो रहे हैं—हिन्दी में भी अब उन्हें उतनी शंका की दृष्टि से शायद नहीं देखा जाता । कथा उपन्यास में भी नवीनता-शैलीगत तथा प्राशयगत-जिन लेखकों ने हिन्दी को दी, जैनेन्द्र जी उनमें प्रधान हैं । जयवर्धन हिन्दी का एक आधुनिकतम उपन्यास है; इसमें मनोविश्लेषण के लिये मनोविश्लेषण नहीं है; संज्ञा-प्रवाह के लिए संज्ञा-प्रवाह नहीं है । सब अन्तत: एक प्रमुख केन्द्रीय उद्देश्य, मानव की प्रतिष्ठा, के लिये है। उपन्यास का उपन्यास-तत्व
अन्त में पुनः प्रश्न उठ सकता है कि जयवर्धन को उपन्यास कहां तक माना जाय ? विश्वसाहित्य में, अन्य कई भाषाओं में, ऐसे दार्शनिक वाद-विवाद-प्रधान उपन्यास हैं । कई आधुनिक उपन्यासकारों ने ऐसी ही मौलिक नैतिक समस्याओं को लेकर लिखा है। परन्तु सर्वत्र उपन्यास की रोचकता को अक्षुण्ण रखने के लिये संकेत के रूप मे ही ये दार्शनिक प्रश्न उन कहानियों में आये हैं, वे प्रधानता नहीं पा सकते हैं । जयवर्धन के लेखक का मूल उद्देश्य शायद उपन्यास-कला की छटा दिखाना नही है। उसके मन में सम्प्रति जो बड़े प्रश्न दुनिया को और भारत को सता रहे हैं, उनका विवेचन करना है । कहानी, पात्र, घटनाएँ उससे गौण हो गयी हैं सही, पर मूल दृष्टि से उपन्यास में उपन्यास-तत्त्व की कमी नहीं है । पाठक को लेखक की रचना