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जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व मेल नहीं खाता । उधर स्वामी एक परम्परा के प्रतिरूप बनते हैं, इसलिये “साँवरेन्टी कहीं है तो धर्मनीति के ही नियमों के साथ है", इसे वे आग्रहपूर्वक प्रतिपादन करते हैं । साथ ही, कुछ दृश्य कट्टरता पर भी सहज व्यंग्य लेखक ने कर दिया है और प्रगतिशील दल की विचलित स्थिति प्रकट करके दूसरे पक्ष का व्यंग्य भी उसमें जोड़ दिया है। फिर भी यह उपन्यास किसी व्यक्ति या प्रसंग की पूर्णछाप या प्रतिरूप नहीं
और पुस्तक समाप्ति के अनन्तर पाठक पात्रों से अधिक विचार-विवेचन में ही लीन हो जाता है । जय का राज्यत्याग एक बड़ी घटना होने के कारण वही सामने आती है। सारे विचार-विवेचन के लिये उसे केन्द्रीय पात्र चुना गया है । लेकिन जय का पात्र कहीं पर भी छोटा नहीं बनने दिया गया यह स्पष्ट एवं सकेत-पूर्ण भी है।
“यही विचार-विवेचन 'वर्तमान' को पार करके 'भविष्यत् की संभावनाओं' की अोर भी इंगति करता है । वह कहता है, "राज्य की ओर से जितने उदासीन रहेंगे और जनशक्ति में आस्था रखेंगे, उतने ही दंड-शक्ति के भरोसे चलने वाले राज्यतंत्र को अनावश्यक बनाते जायेगे।" यह किसी घटना-क्रम की नहीं, विचारविकास की ही संभावना है । आज संसार में जो वैचारिक संघर्ष चल रहा है, उसके द्वारा नवयुग की गर्भ-वेदना तीव्रतम हो रही है। साथ ही एक भूलभुलैया भी विचारक को अपने भीतर लेकर उसे भटका रही है, क्योंकि राजनीति ने सबको आक्राँत कर दिया है। सब पर वह हावी है । चेतन भी राज्यशक्ति के कारण जड़ बन रहा है। यह प्रवाह मानवता और नैतिकता के लिए कहीं अभिशाप ही न साबित हो, ऐसा भय विचारकों को होने लगा है । इसलिए लेखक उस परदे को चीर कर, फिर चाहे वह लोक-कल्याणकारी राज्य का परदा हो या समाजवादी राज्य का हो, या साम्यवादी राज्य का हो, हर प्रसंग पर या तो राज्यशक्ति की मर्यादाएं स्पाट करता है या उसके विलयन की ही आकाँक्षा । जय के भीतर का संघर्ष इसी का प्रतीक है। इसलिए जय एक 'प्रतीक' बनता है, जिसकी परिणति राज्यत्याग में होती है। राज्य "केंद्रित है, कामिक है, नैतिक नहीं, तो युद्ध भी उसके साथ अनिवार्य है', कहकर वह युद्ध और राज्य का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध स्पष्ट करता है एवं उसके साथ का अलगाव भी तीव्रता से प्रकट करता है।" भव्य मानवतावादी उपन्यास ।
उपन्यास का प्रधान विषय जयवर्धन का कर्मायुक्त व्यक्तित्व न होकर उसके भीतर का मनुष्य है । अन्ततः राजनैतिक-सामाजिक समस्याएं जो उठती भी हैं, वे जय के भीतर के मनुष्यत्व के सामने गौण और व्यर्थ हो जाती हैं। अन्ततः जो भी राज और समाज के सवाल हैं. उन सब का परम उद्देश्य मनुष्य को महत्तर और बृहत्तर मनुष्य बनाना है । यदि वह नहीं हो पाता है, तो सत्ता के केन्द्रीकरण