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________________ जैनेन्द्र जी का जयवर्धन भी वर्तमान से परे जाने का यत्न यहाँ स्पष्ट है । वस्तुतः भूत का कितना ग्रंश है जो वर्तमान हो गया है, कितना अंश है जो अब निर्जीव-निष्प्राण बन चुका है-इसका ऊहापोह चिदानन्द के प्रसंग में जयवर्धन में पाया है; भविष्यत् का भी कितना है जो ज्यों-का-त्यों लिया या सहा जा सकेगा, यह प्रश्न नाथदंपति के प्रसंग में उठाया गया है और जिसको हम 'प्र' प्रत्यय से विभूषित बनाकर विशेषार्थिनी गति कहते हैं, उसके भी मूल में जाने का जैनेन्द्रजी ने प्रयत्न किया है । इस दृष्टि से जैनेन्द्रजी के इस उपन्यास को गम्भीर महत्ता है। पश्चिम के साहित्य में उपन्यास की आज की दशा अच्छी नहीं। जे० एम० कोहेन अपने 'ए हिस्ट्री आफ वेस्टर्न लिटरेचर' में फ्रांस के सार्व-माल रां-कैमू, जर्मनी के बेग्रेन-ग्रएन-मान और आस्ट्रिया के कापका आदि की चर्चा करने के बाद लिखते हैं : "The novel has died a victim to the loss of an agreed picture of the Universe, which has faded with the stifling of Christianity by non-dogmatic idealism and crude materialism." जब पश्चिम में उपन्यास की यह स्थिति है, पूर्व में और विशेषत: भारत में उपन्यास की गति अधिकाधिक विचारात्मकता की ओर बढ़े इसमें कोई आश्चर्य नहीं है । जापान में 'सेटिंग सन' जैसे उपन्यास की बेहद लोकप्रियता भी इसी दिशा की ओर इंगित करती है । जैनेन्द्रजी के उपन्यास की पीठिका जीवन-दर्शन है। बल्कि उपन्यास-कला और जीवन-दर्शन विषयक दृष्टिकोण यहाँ एकाकार हो गये हैं। समकालीनों की प्रतिच्छाया प्रश्न उठाया गया है कि क्या जयवर्धन में जवाहरलाल नेहरू और प्राचार्य विनोबा भावे के ही विचारों का प्रक्षेपण या प्रतिन्यास मात्र नहीं है ? श्री लक्ष्मीनारायण भारतीय ने 'नई धारा' में एक लेख में 'जयवर्धनः एकवैचारिक समालोचन" में कहा है "उपन्यास का कालक्षेत्र आज से करीब पचहत्तर-अस्सी साल के बाद का है और यद्यपि 'जयवर्धन' उस काल के विचार का प्रतिनिधित्व, लेखक की आकांक्षा के रूप में, प्रकट करता है, फिर भी उसमें आज के जवाहरलाल जी के व्यक्तित्व का और प्राचार्य में गाँधी जी के व्यक्तित्व का दर्शन होता है । गाँधी जी अब नहीं रहे। जवाहरलाल जी का व्यक्तित्व किस दिशा में मोड़ना मंगलकारी हो सकता है, यह शायद लेखक की आकांक्षा है, परन्तु यह मिलान संकेत-रूप में ही मानना चाहिये । जय को पढ़ते समय तो जवाहरलाल का अन्तर्दर्शन प्रकट होता है, फिर भी जय उन्हें प्रादर्श प्रदान करने की दृष्टि से आगे बढ़ गया है । प्राचार्य की उज्ज्वल मूर्ति में भी बापू की झाँकी कुछ प्रकट होती है, लेकिन उनसे प्राचार्य का उत्तर-जीवन-कार्य कोई
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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