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________________ जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व "परन्तु बात असल में यह है कि जैनेन्द्र के उपन्यासों की 'अपील' हृदय को लक्ष्य करके होती है । वे एकदम मर्मस्थल कुरेद देते हैं । वे समस्या को श्रद्धापूर्वक सुलझाना चाहते हैं। न तो वह उसे टाल ही देना चाहते हैं कि अन्य बातों में यानी घटना चरित्र या वर्णनों की बारीकी में पाठक का चित्त उलझा दिया जाय धौर मूल प्रश्नों को टाल दिया जाय; और न वे विध्वंसक बुद्धिवादी की तरह उस समस्या को मिटा देना ही चाहते हैं । वे अतिशय नम्रतापूर्वक और ग्राग्रह - पूर्वक समस्या की गाँठ की तह-पर-तह खोलते चले जाते हैं । मगर गाँठ बहुत पक्की है । वह उनसे पूरी तरह खुलती नहीं । और पाठक से मदद की वे बीच ही में पुकार करके उपन्यास को समाप्त कर देते हैं ।" ૪ "साधारण पाठक जैनेन्द्रजी के उपन्यासों से बुद्धिमान आलोचक की तरह केवल उलझन में नहीं पड़ जाता वरन् विचारोत्तेजन पाता है । वह उसमें आदर्श के प्रति एक सशक्त इंगित पाता है— 'परख' में प्राध्यात्मिक विवाह का, 'सुनीता' में पराकाष्ठा के प्रात्मिक पातिव्रत्य का, त्यागपत्र में समाज की मान्यनीति के प्रति विद्रोह का और 'कल्याणी' में पुनः हमारे नारी समाज के घर और बाहर के सामंजस्य का प्रादर्श प्रस्तुत पाता है; साथ ही रूढ़ सामाजिक संस्कारों के रूढ़-नीति-बन्धन, रूढ़ -विवाह पद्धति, रूढ़ क्रांतिकारिता और स्त्रियों की स्वतन्त्रता वगैरह की सच्ची जांच पाता है । वह उनके उपन्यासों में एक ताजा, प्रसन्न शैली एक प्रवाह पाता हैजो अन्य कई हिन्दी लेखकों में दुर्लभ है । वह उनके उपन्यासों में गति और निर्भयता, बल और उर्ध्वगामिता पाता है । वह उनमें करुरगा का पोषण और युग-युगान्त व्यापी सत्यों की पुनर्स्थापना पाता है । वह उनमें एक सुसंगति पाता है: एक खोज कि नारी सचमुच में क्या है और क्या होनी चाहिये ? संक्षेप में, वह उनके साहित्य में गांधी-युग की एक झलक पाता है ।" इसके बाद जैनेन्द्र जी ने 'सुखदा', 'विवर्त', 'व्यतीत' लिखे । ये भी काफी रोचक उपन्यास थे । 'व्यतीत' जब रेडियो पर प्रसारित किया गया तो उसने कई श्रोतों को बहुत आकर्षित किया । बुद्धिवाद के अतिरेक घौर खोखलेपन पर, जिसमें असंगति हो' ऐसे अराजकवादी की वाणी और करनी के वैपम्य पर, इन उपन्यासों में त्र्यंग था, परन्तु मानवीय सहानुभूति से वे कहीं खाली नहीं थे । 'जयवर्धन' उनका नौवाँ श्रौर नया उपन्यास है। इसकी विशेषता यह है कि जिसे जर्मन भाषा में 'काल की प्रात्मा' (जाइटजीस्ट) या युग सत्य कहते हैं, उसका प्रतिविम्बन या प्रतिफलन इस उपन्यास में है। बल्कि यों कहें कि उपन्यासकार की प्रतिभा इसमें कालजयी होने का प्रयत्न करती है। इस धरती से बँधे हुये संकल्प इस धरती से ऊपर होने का निरन्तर यत्न कर रहे हैं; इस वर्तमान में स्थित होने पर
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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