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________________ जैनेन्द्रजी का जयवर्धन मन का, व्यक्ति का, सामाजिक मन से यानी समष्टि से जो संघर्ष नित्य-प्रति चल रहा है, उसके प्रतीक हैं, वे ही उपन्यास आधुनिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। अब सिर्फ मुन्न मियाँ और छन्न मियाँ इन दो भाइयों में मुर्ग-बटेर की तरह खून-खराबी तक की लड़ाई हो जाने पर ही हमारा दिल पिघले इतने नाट्य-बुद्धि के और बच्चे हम नहीं रहे । अब हम (हिन्दी के साधारण पाठक) व्यक्ति के मनोविश्लेषण की सूक्ष्म बातों को भी समझ सकते हैं । अब हम समाज में गुप्ततः और स्पष्टतः बढ़ती हुई विचारधाराएँ भी गुन सकते हैं । और इसी से अब हमें सिर्फ 'किस्से' नहीं चाहिए; न ही हमारे लिए 'फसाने' काफी हैं । हमें चाहिए उपन्यास ! सही मानों में उपन्यास वे जो समस्यामूलक हों। V"जनेन्द्रकुमार के उपन्यासों की विशेषता यह है कि वे समस्यामूलक होते हैं । वे किसी महत्वपूर्ण प्रश्न को लेकर चलते हैं । अतः उनके पात्र अशरीरी हो जाते हैं। वे पात्र स्वयं अमूर्त और अपूर्ण, अतः सजीव प्रश्नचिह्न होते हैं । लेखक उन सजीव प्रश्नचिह्नों को पूर्ण व्यक्ति-स्वातंत्र्य देता है । वह उनके बीच में किंकर्तव्य-विमूढ़, मतिचकराया-सा खड़ा है। और वह जैसे राह नहीं जानता । दह राह पाठक सुझाए । उनके उपन्यास इसी कारण अधिकतर प्रश्नान्त हैं—न सुखान्त, न दुःखान्त ही पूरी तरह ।" "वह उपन्यासगत प्रश्न अथवा समस्या एक व्यक्ति की अकेले की नहीं, जमाने की और हर एक व्यक्ति की होती है । 'परख' की बाल-विधवा और अन्तिम अंश 'सुनीता' की पति-समर्पित व्याहता जो पति की इच्छा के लिये ही एक गुमराह को, एक 'सेक्स' के प्रति कुंठित व्यक्ति को, मानवी बनाना चाहती है । 'त्यागपत्र' की मृणाल ना जो पति के यहाँ प्राश्रय नहीं पाती और नैहर से ठुकरायी जाती है तिस पर भी आत्मा जिसकी अव्यभिचरित है; और 'कल्याणी' की वह अजीब नायिका जो पति के हाथों ताड़न भी प्रसाद रूप में ग्रहण करती है, उससे छूटना चाहती है, फिर भी नहीं छूटती और एक ऐसे आदर्श के लिये अपने आपको होम देती है, जो आदर्श वह खुद जानती है कि प्रायः असाध्य है । यह सब उज्ज्वल आत्माएँ किसी एक आदर्श की अोर सशक्त संकेत करती हैं-जहाँ नीति की मर्यादा आज के क्षुद्र जातीय नीतिवधनों की तरह बन्धनरूप न होकर अात्म-निरीत होगी । वे चारों नारी-चरित्र वर्तमान परिस्थिति से असन्तुष्ट हैं, फिर भी प्रेम से (यानी अहिंसा से) उसी में से राह निकालना चाहती हैं । परिणाम स्पष्ट है कि वे 'फेल' होती हैं वे टूटते हुए तारे की तरह एक उज्ज्वल प्रकाशपुज छोड़ कर अपनी-अपनी समस्या के दुष्ट आवर्त में बलि हो जाती हैं । और कौन हृदय-हीन होगा जो आकर यह कह दे कि यह बलिदान अर्थहीन है ? बलहीन और प्रभावहीन है ?"
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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