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जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व जैनेन्द्र जी की उपन्यास-कला का विकास
___ मैंने सन् १६४८ में 'साहित्य-संदेश के अक्टूबर-नवम्बर विशेषांक में "जैनेन्द्रकुमारः दो दृष्टिकोण'' नामक लेख में तब तक प्रकाशित जैनेन्द्र जी के उपन्यासों के बारे में लिखा था---
"साधारण पाठक जैनेन्द्र जी का कोई भी उपन्यास पढ़ने बैठता है तो पहले तो उसे पूरी किताब पढ़ जाने पर ऐसा लगता है कि जैसे वह किसी भूल-भुलैया में घूम आया हो । उसे उनकी भाषा बड़ी रहस्यमयी लगती है। उसे उनके पात्र अशरीरी जान पड़ते हैं। उसे उनके उपन्यासों में कथानक का एकदम अभाव लगता है। उसे उनके बीच-बीच में बोये हुए दार्शनिक पैरेग्राफ़ से एक दम विरक्ति होने लगती है । वह किताब एक अजीब अँझलाहट और वेचैनी से खत्म करता है। उसके मन में एक प्रश्न-सा उठता है कि क्या लेखक कुछ और कहना चाहता था? मुझे लेखक से और कुछ चाहिए था, और कुछ-कुछ अधिक स्पष्ट विवरण ! पर लेखक है कि वह पाठक की पकड़ में नहीं प्राने पाता। वह हवा बन जाता है, यानी आसमान में चक्कर काटते रहता है । और पाठक को मिट्टी की मूरतों से मुहब्बत है, उन्हीं में आज तक वह रमा है।
"पाठक की शिकायत सच मान ली जाय तो हम जैनेन्द्रजी के उपन्यासों में आखिर पाते ही क्या हैं ? अगर उसमें प्लाट नहीं है, पात्र नहीं है, मनोरम भाषा नहीं है, जीवन का स्वाभाविक चित्रगण नहीं है, तो आखिर वह क्या चीज है जो पाठक को बरबस जैनेन्द्र का उपन्यास पूरा पढ़ जाने के लिए बाध्य करती है ? मैंने अभी तक जैनेन्द्र के एक भी उपन्यास को एक बार हाथों में लेकर जो पूरी तरह पढ़ न गया हो, ऐसा समझदार और सुरुचिशील पाठक नही देखा । माना वे उपन्यास पाठक की बौद्धिक कुतूहलमयी शंकाशील वृत्ति को चुनौती देते हैं। माना कि वे उपन्यास पाठक की मान्य धारणामों के प्रति विद्रोह करते चलते हैं; माना कि जैनेन्द्र बिल्कुल जोश-हीन और किन्हीं (विकृत) अालोचकों की दृष्टि से 'गूढ' और बिल्कुल नीरस उपन्यास लिखते हैं तो फिर वह क्या चीज है जो उनके पाठकों की संख्या दिन-वदिन बढ़ाये जा रही है ? वह कौन-सा तत्व है जो लेखक जैनेन्द्र के उपन्यासों की प्रात्मा और भित्ति है।"
___ "मेरा संक्षेप में उत्तर है कि जैनेन्द्र कुमार हमारे युग की मांगों का उपन्यासकार है । उपन्यास के विकास में घटना-प्रधान और चरित्र-प्रधान उपन्यासों का, यानी 'भूतनाथ' और 'रंगभूमि' और 'तितली' और श्रीकान्त' का युग अब समाप्त हो चुका । अब मनोवैज्ञानिक उपन्यासों का युग पाया है । अब उपन्यास गलियों में नहीं भटकते, वे मनुष्य की प्रात्मा में प्रवेश कर चुके हैं । वे 'जेम्स जाइस' और 'लारेंस' की तरह मनोलोक के छाया-प्रकाश की झांकी लेना चाहते हैं । जो उपन्यास मानव