________________
४४
जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व है, इसे प्राधा सच ही मानना । मैं मानव हूँ और सही तो मानव का पक्ष ही मेरा है । विश्व का पक्ष उससे दूसरा नहीं हो सकता, और तभी तक मैं भारत के राज्य के साथ हूँ जब तक वह उस टेक के साथ है । मैं कहता हूँ कि कुछ बड़ी ताकतें मिलकर अपने को विश्व नहीं मान सकतीं । बल्कि मुकाबले में निरा एक व्यक्ति मानव-प्रतिनिधि के रूप में खड़ा होकर न्याय के साथ कह सकता है कि विश्व का पक्ष उसकी निकटता के साथ है, संगठित शक्ति के साथ नहीं। मेरी अोर से जाकर विलबर, पश्चिम को कहो कि अणुभय गया, तो क्या उनके अन्दर दर्प बैठा ही रहेगा ? अंकों की भाषा वह छोड़ें। कूटनीति का भरोसा छोड़ें । समझे कि दुनियां इस महा ब्रह्माण्ड में करण से भी तुच्छ है । इस निरहंकारिता को अपने सारे मन के भीतर रमा कर वे राजनीति को चलाना सीखें, तब वह मानवनीति होगी। उसी में से मानव-हित का अभ्युदय सिद्ध होगा।"
स्थान-स्थान पर भारत की अखण्डता और एकता पर बहुत सुन्दर भाष्य हैं । यथा उपन्यास के प्रारम्भिक अध्याय के प्रथम परिच्छेद में । जैनेन्द्र ने केवल उपदेशक की भूमिका नहीं ली है । वे प्रश्न के अन्य पहलू भी समझते हैं और उन्हें स्पष्टतः सामने रखते हैं । उदाहरणार्थ इन्द्रनाथ का पृष्ठ ३५२ पर बयान ।
___ जगह-जगह पर लेखक के मन मे गाँधी नीति और उनके विचारों का प्रभाव बद्धत स्पाट है। युद्ध और शान्ति, लोकसत्ता-राजसत्ता, सत्ता के केन्द्रीकरण-विकेन्द्रीकरण आदि पर बहुत अच्छी विचारोत्तेजक चर्चाएं हैं। उपन्यासकार के विचार-सूत्र
उपन्यासकार के विचार-सूत्र उनके प्रारम्भिक अपने अक्षरों में लिखे वक्तव्य में कुछ संक्षिप्त रूप से आ गये हैं। पुस्तक ऐसे सूत्रों का भण्डार है । उदाहरण किसी पृष्ठ पर मिल जायेंगे।
कई सूत्रों में बड़ी साहित्यिक विशेषता है। उदाहरणार्थ :
"शायद जीवन एक तनाव है, समाधान वह नहीं है । विरोध को भीतर लेकर जीना होता है। चाहते हैं वह हो नहीं पाते । यही चाह की कीमत और मुसीबत है।" ( पृष्ठ ४१ ) ___"तत्त्व ही स्थिर है, जीवन को चंचल होना होता है।” (पृ० ४६)
'शब्द सूचक है। वह सिद्ध बनता है तब मौन इंगित् से बोलता है।" ( पृ. ४६ )
"संयम ही आदमियों के बीच बड़ी बाधा है। प्रेम में संयम हारता है, इसी से प्रेम बड़ा है ।" ( पृ० ५६ )
"जानना पाना नहीं है । इसलिए एक को पा लोगे तो उसमें से दुनिया को