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जैनेन्द्रजी का जयवर्धन
४३ शब्द वहाँ कथ्य नहीं कहते, केवल चित्र देते जाते हैं। जैनेन्द्र की शैली की यह विशेषता है कि चरम मर्मानुभूति के क्षरण कथन अथवा वर्णन द्वारा नहीं दिये जाते, वातावरण द्वारा उपस्थित किए जाते हैं। पृ० १२८ पंक्ति ११ से प्रारम्भ होकर पृ० १३० पंक्ति १८ तक चलने वाला अतीत का खण्ड-चित्र इसका श्रेष्ठ उदाहरण है। इन पंक्तियों की शक्ति अनुपम है और पाठक का चित्त विदग्ध हुए बिना नहीं रहता। भाषा
__ आक्षेप हुआ कि जैनेन्द्रकुमार की भाषा इस उपन्यास में कृत्रिम है, वह अंग्रेजी ढंग की हो गई है । शायद एक कारण तो यह है कि सारा वर्णन एक अमरीकी की डायरी से लिया गया है । दूसरे मानसिक व्यापारों की तरलता की अभिव्यंजना के लिए ऐसे नवीन भाषा प्रयोग अनिवार्य हो जाते हैं। क्रियापद के प्रयोग में सकर्मक की उपेक्षा अकर्मक का अधिक उपयोग है । सीधे प्रत्यक्ष के स्थान पर अप्रत्यक्ष और सांकेतिक प्रयोग अधिक है। यह सब स्थान, व्यक्ति और मानसिक वातावरण की आवश्यकता के अनुसार हुआ है, इस सब में औचित्य ही है, ऐसी मेरी मान्यता है । खड़ी बोली को लचीला और सहज-ग्राह्य बनाने का जितना प्रयत्न जैनेन्द्रजी की गद्यशैली में पाया जाता है, शायद ही अन्यत्र कहीं हो । जहाँ नये भाव या नयी कल्पनाएँ आयीं, वहां संस्कृत ठूस देने वाले अन्य लेखक तो कई हैं; परन्तु बिना क्लिष्ट, कर्णकटु, अपरिचित तत्समों पर भार डाले, गहरे और सूक्ष्म विचारों को सरल शब्दों में व्यक्त कर पाना आसान काम नहीं हैं । सूत्रात्मकता के आग्रह में कहीं-कहीं भाषा का प्राशय-पक्ष बहुत झीना हो गया है, यह सही है । उपन्यासकार का उद्देश्य
भाषा चकि विचारों की वाहिका मात्र है, जयवर्धन की प्रधान उपलब्धि उसमें का विचार धन है । पूर्व और पश्चिम में राजनीति को लेकर जो तनाव है, उसका हल उपन्यासकार 'मानव नीति' के पुनप्रतिष्ठापन से चाहता है । इसी चिन्ता में से राजनीति की मूलभूत एकांगिता प्रकट होती हैं :
"हम राजनीतिक यही भूलते हैं । आगे के नक्शे बनाते हैं, जैसे भविष्य को मुट्ठी में लेंगे । मुट्ठी खुली अच्छी । तब उंगलियां कुछ कर भी सकती हैं । बंद मट्टी कभी धमकाती थी। ग्राज वह बंद दिमाग की निशानी है 'तुम मुझे पूर्व का कहते हो, विलबर, पर पश्चिम क्यों मुझसे अलग है ? पश्चिम का यह मानना ही उसका दोष है । क्यों नहीं देखते हम कि पूर्व-पश्चिम संकेत भर हैं, संज्ञा नहीं । जाकर कहो पश्चिम को कि जयवर्धन उनका भी है और दुनियां में वह फांक नहीं चाहता। देखते हो कि मैं राज पर हूँ, पर राज का नहीं हूँ, मन का हूँ। भारत का पक्ष मेरा