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जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व करते है । यों चरित्र-चित्रण अत्यन्त सूक्ष्म तरल और मनोहारी हुअा है । उनके विवरण के विस्तार में जाना पुस्तक के महत्व को कम करना है। कथोपकथन
घटना को अप्रधान बना देने पर चरित्र-चित्रण का आधार कथोपकथन मात्र रह जाता है । जैनेन्द्र जी उस कला में निपुण हैं। उन्हें बोले हुए शब्द पर बड़ा प्रभुत्व हासिल है। भाषा में संयम की महत्ता वे समझते हैं । कम-से-कम शब्दों में बड़ा अर्थ-विस्तार भर देते हैं । मसलन एक उदाहरण काफी होगा
मैंने खोलकर झल्लाते से हुए कहा, 'क्या है ?' "पानी चाहिए।"
मैंने कहा, 'पानी दुनियाँ में कहीं नहीं है कि इस तरह दुपहरी में घुसे चले आते हो और नींद हराम करते हो।'
आने वाले ने कहा, "और कुछ खाने को होगा?'' "मुझे बुरा लगा।" झिड़कने को थी कि उसने कहा, "जल्दी करो, वक्त
कम है।"
कहकर दरवाजा धकेल कर वह बिना मुझे यान में लिये अन्दर पा गया । मुझे लगा, मैं चिल्ला उठूगी ।
उसने कहा, कहाँ है पानी?
मैं कुछ न बोल सकी । तभी उसने एक ओर रवखा हुआ घड़ा देखा और जाकर अपने आप गिलास में पानी ले लिया। वहीं पास सीधी खाट खड़ी थी। नीचे डालकर उस पर बैठते हुए कहा, "लामो, जो हो ले पायो।"
मैं उसे देख रही थी। सोचती थी अब चीखी अब चीखी !
उसने कहा, 'देखो नहीं । खाली पानी औगुन करेगा । जामो कुछ ले प्रायो।"
मैं अब भी सोच में थी। पाने वाले की सूरत मुझे अच्छी नहीं लगी। कोई उचक्का-सा मालूम होता था । मैं बढ़ने को हुई कि जाकर बापू से कहती हूँ।
उसने कहा, "देर होगी तो पानी ही पीकर जाना होगा । पर उपासा हूं, सिर्फ पानी प्रौगुन करेगा, जो हो सो ला दो और जल्दी ।"
मैंने कुछ नहीं कहा और आगे बढ़ गई । बापू एक छोड़ अगले कमरे में थे। चना-गुड़ बीच में ही रखे थे। कुछ लेकर वापस आई, उसे दिए । और उन्हीं पांव लौटती बापू को कहने को बढ़ गई। ( पृ० १३५ ) चित्र को प्रभावोत्पादकता
भाव की गहनतम अनुभूति केवल चित्र द्वारा प्रेषणीय की जा सकती है।