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जैनेन्द्रजी का जयवर्धन
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१९८४ की कोटि में रखना उसके साथ अन्याय करना होगा । उपन्यासकार यह नहीं चाहता कि कोई भावी भारत या विश्व के समाज का नक्शा प्रस्तुत करे । उपन्यासकार के निकट शाश्वत मानव सम्बन्ध ही प्रधान विषय है, समाज राजनीति के क्षरण-क्षण परिवर्तनीय इन्द्रधनुषी रंग नही । अतः वह मुख्यतः 'पाप' की समस्या यानी बदलते नैतिक मूल्यों में उसकी परिवर्तनशील परिभाषा की समस्या; और मानव मात्र के परिप्रेक्ष्य में स्वतन्त्रता, अहिंसा, कर्तव्य, ग्रहम्, त्याग, यथार्थ, प्रादर्श, आदि प्रधान प्रेरणा- तत्वों के ताने-बाने में उलभता है । इसी कारण से जयवर्धन का मूल्यांकन उसके चिन्तनशील पक्ष को सामने रखकर मुग्यतः किया जाना चाहिए । वह निरा उपन्यास नहीं, विचारों का उपन्यास ( नावेल आफ् ग्राइडियाज ) है |
कथानक
इस दृष्टि से देखने पर कथानक बहुत संक्षिप्त हो जाता है । विलबर शैल्डन हूस्टन अमेरिका के एक पत्रकार - दार्शनिक कूटनीतिज्ञ थे, जो २००५ ईस्वी में दुबारा भारत आये । पहले १६६५ में भी आए थे । उनकी डायरी के रूप में यह उपन्यास है । जयवर्धन राज का शीर्षस्थ व्यक्ति है । वह आचार्य की पुत्री इला के साथ रहता है । दोनों में विवाह नहीं हुआ है। राज्य में इस विषय को लेकर तरह-तरह के प्रवाद हैं । रूढ़ि-पंथी स्वामी चिदानन्द इसे भारतीय संस्कृति के प्रति जयवर्धन की अवज्ञा मानते हैं । प्रगतिशील नेता नाथ ग्रादि रूढ़िपंथियों का दमन चाहते हैं । इलाके पिता आचार्य जेल में हैं, चूँकि वे अराजकवादी है ! जयवर्धन बेहद लोकप्रिय हैं, यद्यपि उसके ऊपर तरह-तरह के क्षेत्रों से घोर विरोध के प्राक्रमण भी होते रहते हैं । उपन्यास का अन्त जयवर्धन और इला के विवाह से होता है । "सबेरे पाया गया, जयवर्धन नहीं है !" ही अन्तिम सूचना है । जय को अनुभव होता है कि सारा बखेड़ा उसी के कारण से फैले 'कल्ट आफ़ दि पर्सनैलिटी', व्यक्ति-पूजा और विभूति पूजा के सारे ग्राडंबर के कारण है । यह अन्त कुछ ग्राश्वस्त नहीं करता । समस्याओं का यह समाधान प्रति सरल हो जाता है ।
चरित्र-चित्रण
मुख्यतः जयवर्धन, आचार्य, इला, स्वामी ये प्रधान पात्र हैं और अन्य गौण पात्रों में नाथ, लिज़ा आदि उभरते हैं । हूस्टन का पात्र भी एक अन्त: सूत्र की तरह बिखरा हुआ है, परन्तु फिर भी प्रधान टक्कर जय और प्राचार्य के विचारों में ही है, और वह संघर्ष मौलिक है । मानो भौतिकवाद व विवेकवाद एक और और आध्यात्मिक अनुभूतिवाद दूसरी ओर के बीच संघर्ष हो । मानों विचार और आत्मज्ञान के बीच संघर्ष हो । 'हो पाने' और 'हो जाने' के बीच संघर्ष हो । वही इस पुस्तक की मूल भित्ति है । इला के सम्बन्ध एक काल्पनिक दीवार या अवरोध पैदा