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________________ 'त्यागपत्र' और 'नारी' ३३ है । कष्ट के कारणों से घृणा न करते हुए, कट की अनिवार्यता से त्रास न खाकर, उसमें आनन्द की भावना करना अहिंसा है; और अहिंसा यह सिखाती है कि प्रभुक्त वासना का वितरण करना ही उसकी सफलता है । मृणाल अन्त में जाकर इसी उपचार को ग्रहण करने में अपनी मुक्ति समझती है । जमुना में यह भावना प्रारम्भ से ही वर्तमान है, परन्तु दोनों के दृष्टिकोणों में एक अन्तर है-नारी की विचारधारा में समाज-नीति की मर्यादा का रक्षण है, परन्तु त्यागपत्र में यह बात नहीं है । जमुना के स्रष्टा ने इस बात का ध्यान रखा है कि दूसरे व्यक्ति को ग्रहण करने में भी वह समाज-नीति का उल्लंघन न कर पाये । जमुना जिस वर्ग की नारी है, उसमें पुनर्विवाह या दूसरा घर बसा लेना जायज है । इसके विपरीत त्यागपत्र में सामाजिक मानो की अन्तिम स्वीकृति नहीं है । पति के होते हुये भी मृणाल अपने प्रति सद्व्यवहार करने वाले व्यक्ति को शरीर समर्पण कर बैठती है और उत्तेजना में प्राकर नहीं, ठण्डे मस्तिष्क से । जैनेन्द्रजी नीति की चहारदीवारी को तोड़ जीवन में प्रवेश करना शायद ग्रात्म-कल्याण के लिए उचित समझते हैं, परन्तु सियारामशरण जी समाज की मर्यादा भंग करना श्रेयस्कर नहीं मानते । दोनों उपन्यासों के मूल प्रश्नों को ऋजु -शैली से समझिए - सबसे पहले दो नारियाँ अपने जीवन का संघर्ष लेकर हमारे सामने याती हैं और हमारे मन में प्रश्न उटता है कि नारी जीवन की मुक्ति किस में है— विवाह की मर्यादा में, या प्रवृत्ति के उपभोग में ? प्रत्यक्ष रूप में यही धारणा होती है सियारामशरणजी प्रवृत्ति को स्वीकार करते हुए भी विवाह की मर्यादा के पक्ष में हैं श्रीर जैनेन्द्रजी समाज मर्यादा का आदर करते हुए भी प्रवृत्ति के ही समर्थक हैं । पर यह तो हमारे अ ययन की पहली मंजिल है । त्यागपत्र और नारी का मूल प्रश्न अभी हमारे हाथ नहीं ग्राया । अभी और आगे चलना है और उसके लिए हमें मृणाल और जमुना के व्यक्तित्वों के पार देखना पड़ेगा, क्योकि त्यागपत्र और नारी स्पष्टतः ही सामाजिक समस्या के उपन्यास नहीं हैं । उनका - विशेषकर त्यागपत्र का -- सम्बन्ध मानव-जीवन के मौलिक प्रश्न से है : जीवन की मुक्ति क्या है ? त्यागपत्र के साथ यह विशेषता लगा देने का अर्थ यह है कि नारी में पाठक की दृष्टि उसके सामाजिक समस्या वाले पहलू पर अपेक्षाकृत अधिक ठहरती है : मृणाल की अपेक्षा जमुना समाज की इकाई ज्यादा है उसके जीवन में सामाजिक समस्या भी थोड़ा-बहुत महत्त्व तो रखती ही है। लेकिन फिर भी यह पहिली मंज़िल तो आप को पार करनी ही होगी, तभी प्राप इन उपन्यासों की अन्तर्धारा में प्रवेश कर सकेंगे । यहाँ आकर मृगाल और जमुना उपलक्ष्य बन जाते हैं- समाज तथा पुरुष और नारी के प्रावरणों को पारकर जैसे ये दोनों शुद्ध व्यक्ति रह जाते हैं और जीवन
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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