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________________ Y जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व का समाधान ढूढ़ने में व्यस्त दिखाई देते हैं ! विधान या प्रवृत्ति ?- यह इनका मूल प्रश्न है और यही सामाजिक मानव का चिरन्तन प्रश्न भी है। जैसा मैंने ऊपर कहा, जैनेन्द्रजी विधान का साधारण रूप में आदर करते हुए भी अन्तिम परिणति पर पहुँच कर उसका निषेध कर देते हैं । सर एम० दयाल का त्यागपत्र पर सही करना स्पष्ट रूप में जैनेन्द्रजी का विधान के निषेध पर सही करना है। वह महसूस करते हैं : "कहीं कुछ गड़बड़ है। कहीं क्यों ? सब गड़बड़ ही गड़बड़ है । सृष्टि ग़लत है। समाज ग़लत है...... इसमें तर्क नहीं है, संगति नहीं है, कुछ नहीं है । इससे ज़रूर कुछ होना होगा, ज़रूर कुछ करना होगा।" __आगे एक प्रश्न उठता है-'पर क्या. 'आ ?' यहाँ आकर अधिकाँश संक्रान्तिकाल के विचारकों की भाँति वे घबराकर रुक जाते हैं । परन्तु उनकी आस्था, जिसका पोषण गाँधी-नीति के प्रभाव में हुआ है, उनकी मदद करती है; और वे अहिंसा या तपस्या में जीवन का समाधान मान लेते हैं-यद्यपि वह पूर्णतः उसके घट में उतर जाता है, इसमें मुझे सन्देह है। उनके पास एक यही उत्तर है और यही उत्तर सियारामशरणजी के पास भी है । दोनों का प्रश्न एक है, उत्तर भी एक है, परन्तु क्रिया भिन्न है। सियारामशरण जी को जीवन-विधान की गड़बड़ का इतना तीखा अनुभव नहीं होता, लेकिन वे उस पर सन्देह अवश्य करते हैं। उसको तोड़ने का लोभ भी उनको कम नहीं होता है-क़रीब-करीब तोड़ ही देते हैं लेकिन अन्त में उन्हें उसी की ओर लौटना पड़ता है । वे मानो इस प्रकार सोचते हों--पीड़ा जीवन में अनिवार्य है, उसी में आनन्द की भावना कर लेना जीवन का समाधान प्राप्त कर लेना है; और प्रवृत्ति के बन्धन की पीड़ा ही सच्ची पीड़ा है। ____इस प्रकार प्रात्म-पीड़न की फ़िलॉसफ़ी में विश्वास रखने वाले ये लेखक दो विभिन्न क्रियाओं द्वारा जीवन का समाधान ढूँढ़ निकालते हैं-जैनेन्द्रजी विधान से युद्ध करते हुये और सियारामशरण जी प्रवृत्ति से लड़ते हुये। दृष्टिकोण का यही अन्तर दोनों व्यक्तित्वों के अन्तर को स्पष्ट कर देता है। प्रवृत्ति के समर्थक जैनेन्द्र जी का अहं स्वभावतः ही अधिक बलिष्ठ और तीखा होना चाहिये, उधर विधान में आस्था रखने वाले सियारामशरणजी में अधिक आत्म-निषेध होना उतना ही स्वभाविक है । दोनों व्यक्तियों का जीवनादर्श एक है-पूर्ण अहिंसा की स्थिति प्राप्त कर लेना, अर्थात् अपने अहं को पूर्णतः घुला देना। इस साध्य के लिये सियारामशरणजी की साधना अधिक हार्दिक है, नैतिक दमन का अभ्यास उनको अधिक है, और उनका अहं सचमुच बहुत काफ़ी घुल चुका है। अहिंसा बहुत कुछ उनके व्यक्तित्व का अङ्ग बन चुकी है । इसके विपरीत जैनेन्द्र का अहं अब भी इतना
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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