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________________ जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व जमुना का व्यक्तित्व व्यंगमय नहीं है । कारण यह है कि उसमें प्रारम्भ से ही निषेध और स्वीकृति का मिश्रण रहा है । उसको चारों ओर से नकार ही नहीं मिला । प्रारम्भ में पति का मुक्त प्रणयदान, उसके चले जाने पर श्वसुर का स्निग्ध वात्सल्य, और उनके मरने के बाद हल्ली के स्नेह में उसे जीवन की मधुर स्वीकृति भी मिली है । इसके साथ ही बाद में पति की उपेक्षा में, गाँव वालों के विशेषकर चौधरी के-कटु-व्यवहार में उसे तिरस्कार भी मिला है । परन्तु कुल मिलाकर वास्तव में यह नकार उस स्वीकृति से कहीं हल्का बैठता है। इसीलिये जमुना कई बार विचलित होकर भी विश्वास नहीं खो पाती, जीवन की स्वीकृति का अपमान नहीं कर पाती । जीवन की चरम परिणति में भी-जब वह पति का ध्यान छोड़ एक दूसरे व्यक्ति को ग्रहण करने का निश्चय कर लेती है- वह जीवन को स्वीकार ही करती है, उसका निषेध नहीं करती। उसके जीवन में अतृप्ति है। उसकी वासना प्रणय के अभाव में अतृप्त और अभुक्त रहती है, परन्तु उसके साथ ही उसको व्यक्त और तुष्ट करने का साधन भी तो पुत्र-रूप में उसके पास है । वह गृहिणी है। गृहस्थजीवन की मर्यादा का भी, जिसके समतल थामले में हल्ली-जैसा सुन्दर पौधा पनप रहा है, उसकी वासना पर अधिकार है । इसलिये उसके व्यक्तित्व में मृणाल की-सी तीव्रता और गति नहीं रह गई; परन्तु विश्वास की प्रशान्त गम्भीरता उसमें है । मृणाल यदि लैम्प की प्रखर लौ है, जिसमें प्रकाश के साथ विषाक्त धुआँ भी है तो जमना घृत का स्निग्ध दीपक है जिसमें प्रकाश चाहे हल्का हो पर धुआँ बिल्कुल नहीं है। इन दोनों पात्रों के व्यक्तित्वों के अनुसार ही दोनों उपन्यासों के मूल प्रश्नों में भी साम्य है। इन दोनों रचयितानों की विचारधारा की एक दिशा है। दोनों ही दार्शनिक या सामाजिक शब्दावली में गाँधी-नीति में, और मनोविश्लेषण की शब्दावली में आत्म-पीड़न में विश्वास करते हैं । दोनों ही एक स्वर में कह उठते हैं"सचमुच जो शास्त्र से नहीं मिलता वह ज्ञान प्रात्मव्यथा में मिल जाता है।" -त्यागपत्र "लोग ऊपर-ऊपर देखते हैं कि इसे दुख है । किसी को दुख ही दुख हो तो वह ज़िन्दा कैसे रहे ? अाज तो पूरा उपाय करने की सोच ली है । प्रानन्द इसमें भी ___-नारी और अधिक स्पष्ट किया जाय तो वास्तव में इस दृष्टिकोण का निर्माण अहिसा के आधार पर काम की स्वीकृति के द्वारा हुआ है। दोनों उपन्यासों में आत्म-व्यथा में जीवन की शक्ति का मूल स्रोत माना गया
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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