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जैनेन्द्र : उपन्यासकार
२७ चौड़ी कहानी नहीं कही है। तीन-चार व्यक्तियों से मेरा काम चल गया है । इस विश्व के छोटे से छोटे खण्ड को लेकर हम चित्र बना सकते है और उसमें सत्य के दर्शन पा सकते हैं। उसके द्वारा हम सत्य के दर्शन करा भी सकते हैं । जो ब्रह्माण्ड में है, वही पिण्ड में भी है । इसलिए अपने चित्र के लिए बड़े कन्वास की जरत मुझे नहीं लगी, थोड़े में सब कुछ को क्यों न दिखाया जा सके ?'
जैनेन्द्र का संसार मानो अँधियारे आलोक से झिलमिल है । एक प्रकार का कुण्ठित, अवसाद भरा यहां का वायुमण्डल है । खुले ग्राम, खेत, हवा इस व्यथा-भार से दवे निम्न श्रेणी के मध्य वर्ग को नसीब नहीं। इस चित्रपट पर जनेन्द्र के कठिन जीवन की स्पष्ट छाप है। 'सुनीता' में अवश्य हम कुछ खुली-सी हवा में साँस लेते हैं। नहीं तो परख' की काश्मीर-सुषमा में भी हर्ष और उल्लास का नाम नहीं । मध्य वर्ग के डूबते प्राणी ही निरन्तर इस जग में तैरते-उतराते हैं । कट्टो का भग्न घर जहां अधपकी जामुन पेड़ से अनायास ही पट-पट गिर पड़ती हैं; सत्य का 'दीवारों से घिरा' अँधेरा कमरा; सुनीता का सन्नाटे भरा घर जहाँ पिस्तौल का शब्द भी वायु में गूज कर खो जाता है; प्रमोद की बुया की कुण्ठित कोठरी-व्यथा-भार से दबे इस वायुमंडल के बादल मानो अब बरसे, अब बरसे !
___ 'सुनीता' में जो चित्र बनाने का प्रयत्न हरिप्रसन्न कर रहा है, वही जनेन्द्र के हृदय की पीड़ा है । शब्दों में उसे व्यक्त करने का वे प्रयत्न कर रहे हैं। 'हिरन के पेट में जो गाँठ होती है, उसे कस्तूरी कहते हैं। उसको लिये-लिये वह भ्रमता रहता है, बेचैन रहता है। उसके लिये वह शाप है । कस्तूरी हमारे लिये है, उसके लिए वह गाँठ है । यह चित्र हरिप्रसन्न के चित्त की गाँठ है।' यह जनेन्द्र के लिये भी लागू हो सकते हैं।
जैनेन्द्र के प्लॉट सीधे-सादे होते हैं । वे स्वयं ही कहते हैं । 'कहानी सुनाना मेरा उद्देश्य नहीं है ।' वे मानव-स्वभाव की बहुत उलझी हुई गुत्थियाँ सुलभाने में लगे हैं। 'परख' में सत्यधन खोटे निकले । कट्टो से वचनबद्ध होकर भी वे सुख और वैभव की अोर ढुलक पड़े । शरत्चन्द्र की 'अरक्षणीया' में यही चित्र भयंकर होकर दुःसह दुःखदायी हो जाता है । अरक्षरणीया का अपने मुख पर वह टिकली और काजल लगाना कितना असह्य हो उठता है ! 'सुनीता' और रवि बाबू के 'घरे-बाहरे' में विद्वानों ने समता देखी है । एक स्त्री कुछ विचित्र ही ढंग से दो मित्रों को पास लाती है और दूर करती है । 'सुनीता' का पूर्ववर्ती भाग उच्च और मजी कला का नमूना है । पिछले भाग में कलाकार कथा का प्रवाह ठीक-ठीक निभा सकने पर भी अपने मंतव्य में कुछ अस्पष्ट है। यह भी कह सकते हैं कि वह अधिक गूढ़ हो गया है । 'त्याग-पत्र' अपने लक्ष्य में अविराम और अचूक धार में बहा है । भाग्य की-सी कठिनता और अनवरतता इसके कथानक में है । इस प्रबल प्रभाव का विराम जीवन की चट्टानों पर टकराकर