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________________ प्रोफेसर प्रकाशचंद्र गुप्त जैनेन्द्र : उपन्यासकार तप-विह्वल, खद्दर-भूषित, अहंकार से किन्दिन्मात्र छुए एक युवक कलाकार की मूर्ति हमारे मन में उठती है। उसमें सरलता है, उत्साह है, लगन है, विचारमौलिकता है। उच्च कलाकार के उसमें स्वाभाविक गुण है । कुछ ही वर्षों में उसने हिन्दी के कहानी-संसार में अपना स्थान सुरक्षित बना लिया है। क्षितिज से उठकर वह नक्षत्र आकाश में ऊँचा पहुच गया है । क्या है उसका भविष्य ? यह प्रश्न सहज ही मन में उठता है। अब तक उसके दो कहानी-संग्रह–'वातायन' और 'एक रात'- और तीन उपन्यास निकल चुके हैं-'परख', 'सुनीता', 'त्यागपत्र ।' आज हम उसके व्यक्तित्व को भूलकर केवल उसके तीन उपन्यासों की 'परख', करेगे । 'सुनीता' की प्रस्तावना में उपन्यासकार ने लिखा ही है : 'पाठक पुस्तक में मुझे मुश्किल से पायेगा । यह नहीं कि मैं उसके प्रत्येक शब्द में नहीं हूँ। लेकिन पुस्तक के जिन पात्रों के माध्यम से मैं पाठक को प्राप्त होता हूँ, प्रत्येक स्थान पर उन पात्रों के अनुरूप मेरा रूप विकृत हो जाता है । उन्हें सामने करके मैं प्रोट में हो जाता हूँ। जैसे सृष्टि ईश्वर को छिपाये है, वैसे में भी अपने इन पात्रों के पीछे छिपा हुआ हूँ-'। ___ इन शब्दों के पीछे जैनेन्द्र कलाकार के अनेक गुण छिरे हैं-सरलता, मौलिकता और शब्दों के आडम्बर को चीरता हुया शॉ सरीखा उनका सुपरिचित 'अहंभाव' ।। जैनेन्द्र छोटा पट-चित्र पसंद करते हैं । दो-एक मनुष्य-भावनात्रों को लेकर ही वह गहरे से गहरे जाने का प्रयत्न करते हैं । 'परख' और 'सुनीता' के कथानक में एक प्रकार की समानता भी है । एक स्त्री के चारों ओर दो पुरुषों के जीवन-स्वप्न केन्द्रित हैं। कभी-कभी ऐसा भान होता है कि जैनेन्द्र की कला उपन्यासकला नहीं, वरन् गल्प-कला है, क्योंकि जीवन के किसी लघु अंग की विवेचना ही उन्हें अधिक पसंद है । जैनेन्द्र मनुष्य के अन्तर्भावों के विश्लेषण में बहुत दूर जाते हैं और उनकी कला में हमें जीवन की जटिलता का भास होता है, इसी कारण उनको सफल उपन्यासकार कहा जा सकता है। कला का कोई एक स्थायी स्वरूप नहीं । युग और व्यक्ति विशेष के साथ उसके बाह्य रूप में परिवर्तन आ जाता है। 'सुनीता' की प्रस्तावना में जैनेन्द्र स्वयं कहते हैं : 'पुस्तक में मैंने कोई लम्बी ( २६ )
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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