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________________ २४ जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व गुजाइश न हो, जो कथनीय है उसे सूत्र में कहने के अतिरिक्त कोई चारा न हो, वहां कठिनाई खड़ी हो जाती है। जैनेन्द्र जी के सम्बन्ध में यही संकट है। उनका व्यक्तित्व सूत्रात्मक है, गूत्र के सहारे ही उनके विस्तार को समभाना होगा। उनके बाह्य की सरलता और अन्तर की गम्भीरता उनके परिचय के चारों ओर परिधा-सी खींचे रहती है, जिन्हें लाँघकर भीतर पहुँच पाना सर्वथा आसान नहीं होता । __जो मितभापी हो, जिसका मौन उसकी मुखरता से अधिक वाचाल हो, जो रूप से अरूप और दृश्य से अदृश्य तक फैल सकने वाली दृष्टि लिए हुए हो, जो वर्तमान के क्षितिज पर किसी भविष्य का आलोक द्रष्टा हो, उसे एकदम सामान्य विधि से पहवानना, परखना संभव नहीं होता । मैं जब-जब जैनेन्द्रजी के बारे में सोचता हूँ, तो मेरे सामने प्रशान्त महासागर का चित्र साकार हो उठता है। यह कथन स्पष्टता की अपेक्षा रखता है। जैनेन्द्रजी की महासागरता इसमें है कि अानी अभिव्यक्ति में भी उतने ही अगम्य, दुस्तर हैं । उनके भीतरी आड़ोलन अभिव्यक्ति में जैसे सकूच जाते हैं। लेकिन कोई कहे कि भीतर रत्न नहीं हैं, तो लगेगा कि अवगाही अभी अबोध है । हाँ, यह ठीक है कि इन रत्नों की परख सर्व-सुलभ नहीं है। यह निर्विवाद है कि जैनेन्द्रजी मूलतः विचारक हैं। उनका कथाकार उनके बुजुर्ग विचारक का पल्ला पकड़कर चलता है । जहाँ कथाकार पर यह विचारक हावी नहीं हुअा है, वहाँ जैनेन्द्र की कृति कथा-साहित्य का गौरव बन गई है । लेकिन अनेक प्रसंगों में जैनेन्द्र का विचारक कथाकार को एकदम अपने नियंत्रण में रखने की कोशिश में कथा-रस में व्याघात पहुँचाता जान पड़ता है । फिर भी यह सत्य है कि जैनेन्द्र के समस्त व्यक्तित्व का रहस्य उनके विचारकत्व में है । जिसने जैनेन्द्र के विचार एकत्र किए थे, उसने यह मान लिया था कि(जैनेन्द्र का विचारक रूप ही उनका प्रकृत जैनेन्द्र का कथा-साहित्य विद्रोह का साहित्य है । वह व्यक्ति-स्वातन्त्र्य को समाज की वेदी पर वलि होते देखकर क्षुब्ध हो उठता है, उसका विद्रोह तेजस्विता के साथ मुखर हो उठता है। उन्होंने समाज में गिरी हई नारी की जैसी हिमायत की है, वैसी किसी क्रांतिदृष्टा की कृति और वाणी में ही संभव है, पर समाज से एकदम इन्कार करके, उसको आभूल नया बनाने की कोशिश करने वाला समाज की साधारणता के साथ मेल न खा सकने के कारण समाज से दूर जा पड़ता है। यहीं उस व्यावहारिकता की आवश्यकता पड़ती है, जो गाँधी जैसे क्रांति दृष्टा में मिलती है। बाद में जैनेन्द्र ने गांधीवाद को स्वीकार किया है, किन्तु गांधीवाद का व्यावहारिक पक्ष जिस सामंजस्य को साधकर चलना चाहता है, वह जैनेन्द्र के कथा-साहित्य में नहीं
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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