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डाक्टर राजेश्वर गुरु
जैनेन्द्रकुमार : व्यक्तित्व दर्शन
'परख' और 'सुनीता' के लेखन से प्रारम्भ करके गांधीवादी सर्वोदयी दर्शन की मंज़िल तक का पथ एकदम ऋजु नहीं दीख पड़ता । मनोविश्लेषणात्मक उपन्यासों के कर्ता के साथ मानवतावादी, प्रादर्शोन्मुखी दार्शनिक का मेल ठीक-ठीक नहीं बैठता, यह अनेक तार्किकों का मत है। किन्तु सही बात यही है कि घोर व्यवहारिक यथार्थ की संकुलता के बीच से ही आदर्श अपना रास्ता बनाकर चलता है। यों भी कह सकते हैं कि यथार्थ की दृष्टि जितनी गहरी और पनी होगी, आदर्श की कान्ति उतनी ही प्रखर और आकर्षक होगी। जो जीवन को जितनी ही मज़बूती से पकड़ेगा, आस्था से ग्रहण करेगा, वह उतनी ही दृढ़ता से, उतने ही विश्वास के साथ जीवन के यथार्थ को कह पायेगा और आदर्श को छू सकेगा । सोचें, तो जान पड़ेगा कि इस उपलब्धि के लिए आवश्यकता एक अद्भुत बौद्धिक संतुलन की है, जो यथार्थ को चिपचिपाहट और आदर्श को आकाश कुसुमता के खतरे से बचाए रह सके । अगर कहें कि जैनेन्द्रकुमार का व्यक्तित्व ऐसे ही संतुलन का व्यक्तित्व है, तो संभवतः यह उनका सबसे सच्चा परिचय होगा।
अपरिचय में ज्ञान अधूरा रह जाता है, अति-परिचय में वह रागात्मक हो उठता है । मैं जैनेन्द्रकुमार से परिचित हूँ, इतना ही कि उनके बारे में निकटता से जान सका हूँ, इतना अधिक नहीं कि उनकी बात को लेकर एकदम भावुक हो उठू। दो दशाब्दियाँ होने आई हैं, जब उनके साथ उनके निवास स्थान पर टहरने का अवसर मिला था । तब श्रीमती सुभद्राकुमारी चौहान जीवित थीं । वे भी मेरे साथ थीं। दूसरी बार कोई पाँच वर्ष पूर्व वे भोपाल आये थे और तब दो दिन उनके साथ रहने का अवसर प्राया था।
इन दो सम्पकों में विभिन्न सूत्रों से जैनेन्द्रकुमार के सम्बन्ध में अपनी निजी धारणा बनाने में सहायता मिली। जब मैं प्रेमचन्द के सम्बन्ध में लिख रहा था, तब प्रेमचन्द सम्बन्धी उनके लेख को लेकर कुछ पत्र-व्यवहार भी मेरा जैनेन्द्र जी से हुआ था। उनको जानने में यह प्रसंग भी उपयोगी सिद्ध हुआ।
विस्तृत परिचय देना आसान हुआ करता है । विस्तार से कही बात सत्य को कम से कम स्थूल रूप में रखने में तो सफल हो जाती है, लेकिन जहाँ विस्तार की
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