________________
बरफ से ढकी एक झील : एक साहित्यकार यह आदमी अवश्य कोई दार्शनिक है। जोरदार है । मैं देखते ही समझ गया ।
"ये अाजकल हमारे यहां आए हुए हैं । मैं लगभग महीने भर के लिए यूरोप जा रहा हूँ। तब तक इनके लेखन आदि में सहायता कर दो।"
फिर मेरे चेहरे का भाव पढ़ने का प्रयत्न किया जाता—'अरे, इन्हें महात्मा जी कहते हैं।"
____ मेरी समझ में नहीं आता। महात्मा जी तो एक ही हैं जो दीवार की दूसरी ओर बैठे हैं-खद्दर की चादर ओढ़ ।
हां, फिर बतलाया जाता है—इन्हें महात्मा भगवानदीन जी कहते हैं । मुझे अपनी अल्प बुद्धि पर तरस आता है । मैं इतना भी नहीं जानता। . "अच्छा, तुम उनसे मिल जायो। 'अरी, कक्कू इन्हें पहुंचा दो।" नन्हीं कवकू रास्ता बतलाती है । एक मकान के आगे खड़ा कर देती है।
खरडी खटिया पर विराजमान दीवार वाले चित्र की प्रतिमूत्ति देखता है, तो अपनी आँखों पर मुझे विश्वास नहीं हो पाता । फेम वाले आदमी और बिना फेम के आदमी में तीन और छ: का अन्तर है। क्रशकाय, घुटा हुआ सिर, कपास की तरह खिली दाढ़ी नदारत । 'चारपाई की बग़ल में भरी हुई पीक-दान ।...
मैं लौट जाता हूँ। अपनी असमर्थता प्रकट करता हूँ। बीमारी का बहाना बनाता हूँ और फिर हफ्तों तक उधर झांकने का नाम तक नहीं लेता।
झमाझम पानी गिर रहा है । बरखा की तिरछी बौछारें पड़ रही हैं। सड़कें नहरों का काम दे रही है। मैं पानी में डुबा गली-गली भटक रहा हूँ । चलतेचलते सहसा पाँव ठिठक पड़ते हैं।
चारों ओर अनन्त, असीम जल ही जल । लहरें ही लहरें । कहीं कोई विनारा नहीं। मेरे पंख थक गए हैं । मैं फिर जहाज की ओर लौटता हैं।
'कहो हजरत क्या हाल है ?'' वही सदा की स्वाभाविक अम्लान मुस्कान । "क्या कर रहे हो आजकल ?"
"बस यहीं..।"
मालूम है इस व्यक्ति ने झूठ बोला था । वक्त पर काम नहीं आया था, फिर भी 'चन्द दिनों बाद......।
...भई देखो, इतने तुम्हारे खाने में खर्च होंगे । इतने कपड़े-लत्ते में । और जेब खर्च इतने में आसानी से चल सकता है । ... ''तो घर के लिए दस रुपए तो बचा ही सकते हो ना..."
___... मैं भी कभी ऐसे ही घर से निकल पड़ा था । दिल्ली छोड़कर कलकत्ता गया था। दो पैसे का इत्ता बड़ा तेल का पराठा हावड़ा स्टेशन पर खाया था,