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जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व प्राज भी याद है। लेकिन मैं रीता लौट आया था. माँ के पास । इकलौता बेटा जो था न ! 'तुम्हारी तरह ।”
मैं पीछे मुड़कर देख रहा हूँ । आज कितना समय बीत गया । धूल से ढंका ग्लोब आज भी वहीं पर है, उसी तरह । धरती अपनी परिधि पर न मालूम कितनी बार घूम गई। कितने बसन्त, कितने पतझड़ बीत गए । दुनिया कहाँ की कहाँ चली गई।
जोशी आफिस का काम ही नहीं देखता, घर का भी एक सदस्य है ।
मैं रात को देर तक पढ़ता हूँ। अतः सुबह आफिस पहुँचता हूँ तो आँखों में तनिक ललाई झलकती है।
"क्यों भई, खैरियत तो है । घर से कोई चिट्ठी-विट्ठी तो नहीं पाई ?"
"नहीं तो।" बिना पूछे ही मैं कहना शुरू कर देता हूँ-"रात को पढ़तेपढ़ते पता ही नहीं चला कब कितना समय बीत गया । किताब खतम होने पर होश पाए कि रात के चार बजे हैं।"
चार, छः, दस, बारह बजते जा रहे हैं । समय बीतता जा रहा है। दिन बीतते जा रहे हैं।
-भई, इन्हें जानते हो।' ये कहानियाँ लेख वगैरह लिखा करते हैं।' ____"-- भई, वारान्निकोव, ये ।" वारान्निकोव हँस कर कहते हैं कि वे मुझे बहुत पहले से जानते हैं।
"--सत्यकाम ये..."
"... प्राज रेडियो में जोशी की कहानी पाने वाली है । क्यों भई ।" रेडियो के पास चार-छ: जने खड़े हैं-यह ग्राकाशवाणी दिल्ली है--बच्चों का कार्यक्रमसूहो का सितार-लिखने वाले हैं... ।
"-तुम घर जा रहे हो । पैसे-वैसे हैं कुछ या यों ही ?.. 'भई, सुनना भगवती जी-कुछ है तुम्हारे पास ।"
-सोचता हूँ कभी-कभी पैसा-वैसा क्या है । सब लोग पारिवारिक भावना लेकर रहें, साथ रहें-आश्रमों की तरह । लेकिन सिद्धान्त पौर यथार्थ ।...
शरद् की धुली चाँदनी में, वर्षा की बौछारों में, उमड़ते-उमड़ते झंझा वार्ता में, यानि कि हर ऋतु हर मौसम में मैंने इस बर्फीली झील को देखा है। लेकिन कभी विचलित नहीं पाया। तूफान आते हैं और निकल जाते हैं । हिम-मंडित ज्वालामुखी की तरह शान्त । 'सतह पर लहरें भी शायद किसी ने न देखी होंगी। एक सनातन भाव, एक सनातन विचार–पार्क पर खड़ी मूर्ति की तरह ।