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"कहीं एप्लाइ किया है ?'
"जी हां । रेडियो में वायस - टैस्ट होने वाला है । ... "और "और"।" "अमुक सम्पादक से तुम मिले । अमुक-अमुक स्थानों में तुम्हारी रचनाएँ छप सकती हैं । छपना प्रतिबिम्ब है । जब तक छपेंगी नहीं, तुम कैसे जान सकते हो कि तुम कैसा लिखते हो ।" टाल्स्टाय, प्रेमचन्द आदि बहुत से साहित्यकारों के बहुत से दृष्टान्त आते हैं । — " प्रेमचन्द से जब मैं मिला तो ऐसा ही कुछ मैंने भी कहा था । "
जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व
मैं दृष्टान्तों से ऊब चुका " तुम्हारे हाथ में क्या है ?"
"जी, कुछ नहीं, कुछ नहीं ।" मैं खिसिया कर कहता हूं ।
"कुछ तो है ।"
"जी हूं हूं - कुछ नहीं ।"
"अरे, वाह कुछ क्यों नहीं ।"
"जी, यों ही कुछ लिखा था । बस यों ही ।"
" दिखलाओ ।"
क्या करूं मुझे सूझता नहीं । क्षण भर किंकर्त्तव्यविमूढ़ खड़ा रहता हूं | कैस कहूँ कि यह पढ़ने योग्य कहानी नहीं है । - ऐसा भी कहीं हो सकता है ।
" अच्छा छोड़ जाश्रो । हम देखेगे । तीन बजे ग्राना । ७।३६ हमारे घर ।" मैं बाहर 'घोड़े वाले पार्क' में पड़ा पड़ा जेठ- श्राषाढ़ के तपते तीन घंटे गुज़ार
| चलने लगता हूं ।
देता हूँ ।
तीन बजने वाले हैं। समय की ओर से मैं बहुत सतर्क हूं । न तीन बजने से एक मिनट कम हो, न ग्रधिक । ७।३६ के दरवाजे खटखटाता हूँ ।
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" भई, कहानी देख गया । अच्छी है । अमुक सम्पादक के पास जाओ । कहना उन्होंने भेजा है । कहना कि वह मुझे फ़ोन कर लें ।"
" जी यह तो कुछ नहीं । यह भी कहीं छप सकती है ?"
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कैसे कहते हो ।
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"इन्हें जानते हो ?" दीवार की ओर इंगित है । एक चित्र टंगा है— रंगीन । शोभियाना । कपास की तरह खिली दाढ़ी, खादी की लोई प्रोढ़े । सुन्दर काला फ्रेम । फोम के ऊपर सुनहरे तारों की चमचमाती माला पड़ी है, जो नीचे तक लटक रही है । गांधी जी के चित्र के अलावा बस यही एक चित्र है जो नीली दीवार पर टंगा है।