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जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व
चिन्तन ने जैनेन्द्र को कथाकार का रूप दिया है । जीवन - चिन्तन क कलात्मक और कथात्मक ढंग से अभिव्यक्त करने के लिए ही 'कल्याणी' की सूि हुई है। प्रश्नता जैनेन्द्र- साहित्य के प्राधार व्यक्तित्व में है । जीवन और जीवन प्रभावित विभिन्न स्थलों और अवयवों के प्रति जैनेन्द्र की सप्रश्नता और सप्रश्नता क समाधान-सौन्दर्य ही जागरूक है । "सच यह कि आदमी के भीतर की व्यथा है सच है । उसे संजोने ही रहना चाहिए । यह व्यथा ही है शक्ति । उसमें किस का साझा नहीं । उसका दान गलत है । संचय ही उसका इष्ट है । उच्छ् वास में भी उसे व्यय करना भूल है । जितना अंश उसका आनन्द बन जाए, उसी मे से खर्च कर सकते हो । बाकी को तो आाग के रूप में भीतर रखना ही श्रेयस्कर है । भीतर सुलग निरन्तर चाहिए, बाहर झुलस ठीक नहीं ।" (कल्याणी)
भीतर-बाहर के पृथक्त्व और विरोध ही क्लेश है । जीवन के प्रतिकूल है । क्लेश व्यथा नहीं है । क्लेश में व्यथा का जीवन अथवा गौरव नहीं है । जीवन में क्लेश बढ़ाने के पक्ष में जैनेन्द्र नहीं रहे, कल्याणी नहीं रही । कल्याणी व्यथा की तात्त्विकता में है । क्लेश की अभिवृद्धि में नहीं ।
जैनेन्द्र ने कल्याणी के दृष्टिकोण से जीवन को देखा है । कल्याणी का भारती तपोवनवाद मूलत: जैनेन्द्र की निष्ठा है, कल्याणी की भारती तपोवन - श्रास्था जैनेन्द्र की आस्था का सौन्दर्य है । भारती तपोवन - आस्था में कर्मविमुखता, लोकनिरपेक्षता, अकर्मण्यता अथवा पलायनवादिता नहीं है । भारती तपोवन-निष्ठा तो भारतीय संस्कृति के पुनर्जीवन, पुनर्जागरण र पुनर्मूल्याँकन का सत्प्रयास है । कल्याणी की भारती तपोवन निष्ठा पलायनवाद नहीं है ।
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कल्याणी का अन्त दुखांत मूलक है । कल्याणी दुखांत है, कल्याणी का प्रत दुखपूर्ण नहीं | वह 'कल्याणी' - उपसंहार का " मैं रहना चाहता हूँ" सत्य के जीवनवाद से श्रोतप्रोत है । मुझे रहने दो। मैं रहना चाहता हूँ — यह जीवन - श्रास्था नहीं, अस्तित्त्व - मंडूकत्व, जीवनवादी व्यामोह, जीवनवादी अभिनय है, जीवन के प्रति आस्था नहीं । जीवनवाद में जीवन-सामर्थ्य नहीं रहता । जीवनवाद में जीवन की ... अस्तित्त्व-निर्मलता अथवा जीवन-सौन्दर्य नहीं ।
किन्तु वस्तुत: जैनेन्द्र-साहित्य का एक प्रमुख प्रकाशस्तम्भ अवश्य है ।
जैनेन्द्र भावदृष्टा हैं, तत्व दृष्टा हैं । जीवनद्रष्टा जैनेन्द्र का वृतवादी कथा - शिल्प पिंड में ब्रह्माण्ड सिद्धान्त पर आधारित है - वह मध्यवर्गीय व्यक्ति के आत्मपीड़नवाद की देन है ।
कथात्मकता के क्षेत्र में जैनेन्द्र परिधिवादी हैं । जैनेन्द्र का कथाक्षेत्र अत्यन्त सीमित है | कथा - वैभिन्य पर जैनेन्द्र उतरे नहीं। वह जीवन के आधारभूत प्रश्नों को प्रान्दोलित करते हैं - प्रचलितवाद के वृतवाद पर उपन्यासकार जैनेन्द्र प्राधारित