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________________ जैनेन्द्र के जयवर्द्धन-पूर्व उपन्यास : एक पर्यवेक्षण २५३ सँभाल चलने की अपेक्षा अपनी तरह रहने का निष्कर्ष है, निष्ठा है। ___कल्याणी-प्रश्नों में ही सृष्टि का रहस्य सूत्र है । "जिन्दगी क्या है ? हम क्यों जीते हैं ? मैं क्यों जीती हूँ?" आदि कल्याणी पर प्रश्नों के अतिरिक्त जीवन-गरिमा के अनुकूल दूसरे प्रश्न क्या हो सकते हैं ? प्रश्न की अपेक्षा प्रश्नोत्तर ज्यादा-से-ज्यादा क्लिष्ठ हैं। कल्याणी-प्रश्नों के निराकरण में ही सष्टि की तात्विकता का संक्षिप्त इतिहास है । आवश्यकता है जीवन-दृष्टि की । कल्याणी जीवन-सम्पूर्णत्व की सिद्धि की साधना करती है । "जिन्दगी क्या है" आदि कल्याणी परक प्रश्न जीवन-सम्पूर्णत्व के प्रति उसकी निष्ठा का परिचय देते हैं। कल्याणी जीवन-गरिमा की छात्रा है। ___ जीवन की अपूर्णता पर कल्याणी का विश्वास नहीं। जीवन को खंडित कर उसे बहिरन्तर के रंगीन छिलकों में कल्याणी नहीं सजाती । जीवन पूर्णता के पथ पर कल्याणी-संकेत चलते हैं। ___ कल्याणीवरिणत जगन्नाथ धाम की वर्णनात्मकता में प्रतीकत्व का सूत्र जीवन है, चित्रात्मकता का प्रतीक सौन्दर्य है। कल्याणी वरिणत जगन्नाथ धाम सृष्टि पोर जीवन के विभिन्न सत्यों के इकाई अध्ययन के रूप में है। जैनेन्द्र-दर्शन चित्र शैली में कल्याणीवादी जगन्नाथ धाम में वर्णित है। __चक्कर में भागने को जैनेन्द्र सम्यक् गति नहीं मानते । चक्करवाद अर्थात चक्कर में भागना जीवन-गति की अभिव्यक्ति नहीं है। पत्नीत्व को जैनेन्द्र ने अर्थ-संदर्भ और भाव-संदर्भ अर्थात् जीवन-संदर्भ में स्वीकार किया है । पत्नीत्व संभवतः मूल प्रतिवादी दासता है। किन्तु जीवन में हम जीवन-यापन की दासता स्वीकार नहीं करते ? जीवन-संदर्भ में पत्नीत्व साधना है। सुख-निजत्व का प्रकाशान्वित विसर्जन ही विशिष्टता है ।। जैनेन्द्र के शब्दों में, "विश्व के मूल में यज्ञ है। त्याग पर भोग टिका है। सुख की चाहना यहाँ नहीं हो सकती । सबको सुख नहीं मिल सकता। विशिष्ट वे है जो अपने सुखों का विसर्जन करेंगे, कि औरों को सुख मिले।" यहां जैनेन्द्र-चिन्तन का निर्सग-मालोक जागरूक है। समाज के प्रति व्यक्ति की उत्तरदायित्व-गुरुता है, जैनेन्द्र ने हमेशा यह प्रतिपादित किया है । व्यक्तिवाद के चकमे में जैनेंद्र ने 'व्यतीत'-अपवाद को छोर कर, समाज को, विस्मृत नहीं किया। बह व्यक्ति की समाज-गुरुता के प्रति जागरूक किन्तु "यह धरती मुक्त पुरुषों के लिए नहीं बनी है। हम सदोष है, यही कारण है कि हम हैं । जीवन की आवश्यकता का समर्थन भी यही है ....... कोई अपने साथ भी अत्याचारी नहीं हो सकता।"
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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