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जैनेन्द्र के जयवर्द्धन-पूर्व उपन्यास : एक पर्यवेक्षण
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नहीं।
जैनेन्द्र शब्दों का अपव्यय नहीं करते, शब्द-व्यवहार में मितव्ययी हैं। जैनेन्द्र शब्दों में व्यक्तित्व-प्रतिपादन करते हैं-उन्हें भावात्मकता का रश्मि-बोध प्रदान करते हैं । शब्द-चयन परम्परा-शैली में कलापूर्ण नहीं, भाव-गुम्फित हैं । साधारण शब्दों में असाधारण तात्त्विकता गुम्फित करने में जैनेन्द्र कुशल हैं । पद्मभूषण राजा राधिका रमणप्रसाद सिंह की मिश्रित शैली का सौंदर्यवाद जैनेन्द्र ने ग्रहण नहीं किया।
अहं और समर्पण को जैनेन्द्र ने कथा-रूप दिया है। ___अन्तत्ति-निरूपक उपन्यासकार जैनेन्द्र मनोविश्लेषणवादी वृत्त में बंदी बनाए जाने योग्य नहीं । क्योंकि मनोविश्लेषण जैनेन्द्र का साधन है, साध्य नहीं।
जैनेन्द्र-निरूपित मनोविश्लेषण साध्य-सौष्ठव से पूरित नहीं, साधक-निष्ठा से प्रेरित है । जैनेन्द्र पिंड-सत्य-निरूपक कथाकार हैं-स्फुलिङ्ग-सत्य-निरूपक कथाकार !
बौद्धिकता और हार्दिकता अर्थात् हार्दिक श्रद्धावाद में जैनेन्द्र ने अस्तित्त्वबोध का निष्ठा-संघर्ष प्रदर्शित किया है । सुनीता के वृत-बोध, कल्याणी की भारती तपोवन-निष्ठा और व्यतीत-सम्मोहिता अनिता में हार्दिक श्रद्धा के चक्रव्यूह के क्या सत्य और महत्त्व हैं, इस प्रोर जैनेन्द्र ने अपनी उपन्यासशाला में शोध-कार्य किया है।
अहं और समर्पण का राज्यविस्तार जैनेन्द्र ने कथा-शिल्प में कुशल मामिकता और बौद्धिकता की तटस्थ संश्लिष्टता के साथ किया है । बहिरन्तर के स्थूल-न्यूह को जैनेन्द्र ने अन्तर्जगत-व्यापार के संकेत-संधान में निरूपित किया है।
चारित्रिकता के रहस्य-प्रयत्न जैनेन्द्र-कुशलता में सम्मिलित रहे है । जनेन्द्र ने युगविशेष की औपन्यासिक कथात्मकता को प्रतीक-वैभव प्रदान करने का गौरव प्राप्त किया है । जैनेन्द्र के उपन्यास इसीलिए प्रतीकवादी हैं, ऐसा मैं अनुभव करता हूं। उनकी औपन्यासिक चारित्रिकता और चारित्रिक औपन्यासिकता प्रतीकात्मकता से परिपूर्ण हैं । जैनेन्द्र-उपन्यासों का प्रतीकाभिव्यंजन मानव को खलता है-जीवन को उसके पिंड-सत्य में देखने का सुप्रयास करता है।
यह संरक्षण-योग्य विश्वास है कि हिन्दी-उपन्यासों के इतिहास में जैनेन्द्र के उपन्यासों का महत्त्व सदा जागरूक रहेगा।