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जैनेन्द्र के जयवर्द्धन-पूर्व उपन्यास : एक पर्यवेक्षण २३७ अवहेलना करते हैं । किन्तु प्रेमचन्द का वर्गवाद यहां नहीं, उसमें राजनीतिक दलवाद प्रमुख है । सुखदा को अश्रद्धा हो पाती है "उस पद्धति के प्रति जहाँ व्यक्ति का मानव कुचल दिया जाता है और वह किन्हीं बाहरी आदेशों के हाथों जड़-यंत्र की भांति व्यवहार करता है।" व्यक्ति में मानव सर्वोपरि है, इसे हम कैसे अस्वीकार कर सकते हैं ?
जैनेन्द्र जीवन में आतंक नहीं, जीवनमयी व्यवस्था के पोषक हैं। प्रातंक के समक्ष जनेन्द्र और जैनेन्द्र के पात्र घुटने नहीं टेकते ।
सुखदा में त्रास और आत्म-पीड़न है । आत्म-पीड़न की गंगा है । स्त्रीत्व के मूल्य-निर्धारण में सुखदा ने श्रुटि की है, इसलिए जीवन ने उसके आगे, अन्त में, 'पराजयवाद' रख दिया-पराजय का तुषार-क्षेत्र ! वर्ना, जीवन से सुखदा का विरोध नहीं था। जीवन ने सुखदा का विरोध नहीं किया था।
हरीश क्रान्ति दल का नायक है। किन्तु ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है कि दल भंग कर देना पड़ता है । हरीश के ही शब्दों में, "मेरा विचार है कि दल भंग कर देना चाहिए । मतलब यह नहीं कि सब आराम से बैठे। बल्कि यह कि अपनी-अपनी जगह अपनी बुद्धि से काम लेकर अपनी परिस्थितियों में राह निकालें और जी एक राष्ट्रीय आन्दोलन हमारे बीच धीरे-धीरे उठकर प्रबल हो रहा है, उसमें अपनी जगह लें।"......क्योंकि, "एक लक्ष्य और एक नीति अब हमें सहज भाव से जुटाये नहीं रखती। भीतर भेद पड़ रहा है । इससे मैं कहता हूँ कि आप लोग जायें । हलके होकर नहीं, क्योंकि काम बहुत पड़ा है और देश पराधीन है। लेकिन दल का रूप अब नहीं रहेगा ।"
जैनेन्द्र के हरीश की इन पंक्तियों का विशेष रूप से अध्ययन होना चाहिए। दल भंग क्या इसीलिए हुआ कि भीतर भेद पड़ रहा था ? भेद क्यों पड़ रहा था ? क्या लाल जैसा जीवनोचित व्यक्ति दल के अनुरूप सिद्ध नहीं हो सकता ? दल में व्यक्ति का मानव समाप्त हो जाता है। बाहरी आदर्शों पर यंत्र की भांति वह व्यवहृत होता है। क्या व्यक्तिबोधी जैनेन्द्र ने दल भंग कर व्यक्ति बोधवाद का प्रतिपादन किया है ? दल को विलीन कर जनता में खो जाने का आवाहन सुखदा-वृत में हरीश ने किया । जनता में खो जाना दलवाद अथवा वर्गवाद नहीं है। हम जीवन में अपनी परिस्थितियों से राह निकालें । दलवाद का बुद्धत्व जनता में खो जाना है।
विदेशी शासन अर्थात् परतंत्रता के तथाकथित न्याय के समक्ष उग्र-कान्ति के नायक का प्रात्मसमर्पण जैनेन्द्र का प्रतिक्रियावाद मालूम पड़ता है।
हरीश द्वारा जिस राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रति संकेत है, वह गांधी-नेतृत्व