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जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व ____ "जो तुम्हारी ज़िन्दगी है, उसे पूरी तरह स्वीकार करो...''तुमको तुम न रहने देकर मैं क्या पाऊँगा ? तुमको पाऊँगा तो तभी, जब तुम हो।"
किन्तु सुखदा की जीवन-पराजय के क्या कारण है ? सुनीता पलायन-स्वीकृति का अन्धकार ग्रहण नहीं करती, जीवन-पराजय उससे डरती है।
सुनीता और सुखदा में मौलिक अन्तर है--सुनीता बस गई, सुखदा उखड़ गई। जीवन की दो विभिन्न स्थितियों का प्रतीकात्मक प्रतिपादन सुनीता और सुखदा करती हैं।
सुनीता--चिन्तन अभिव्यक्त होता है-"किन्तु सच, परिवार ही क्या व्यक्तित्व की परिधि है ? क्या मैं इसी में बीतू? क्या इसे तोड़कर, लाँधकर एक बड़े हित में खो जाने को मैं आगे बढ़? उस विस्तृत हित के लिये जिऊँ, उसी के लिए मरूँ तो क्या यह प्रयुक्त है, अधर्म है ? ...... "मैं इस घर से टूटकर जाऊँगी तो जिऊँगी नहीं।........ इसी घर की दीवारों के भीतर मेरा स्थान है । घर बन्धन है, तो हो; लेकिन मुझे तो मोक्ष भी यहाँ ही पाना है ।"
और सुखदा सोचती है कि "घर में स्त्री कितनी पराधीन है । वहाँ उसकी उन्नति के मार्ग प्रायः बन्द ही हैं।......''यह एक चक्कर है, जिसमें जीवन की... स्फूर्ति नहीं है। सिर्फ एक क्रम है, और हर व्यतिक्रम अपराध ।"
इसीलिए, सुनीता और सुखदा की परिसमाप्ति में गहरा अन्तर है ।
'सुनीता' में श्रीकान्त और हरिप्रसन्न मित्र हैं, मित्रता की ऊँची परिभाषा के मित्र । 'सूखदा' में सुखदा का पति और हरीश एक दूसरे के बालसखा हैं । सूनीताकथा-सामीप्य 'सुखदा' में है । स्त्रीत्व के प्रावरणवाद में सुखदा ने पत्नीत्व का दुरुपयोग किया । क्रान्ति, देश की स्वतंत्रता प्रादि पर लेखक ने 'सुखदा' के माध्यम से विचार किया है । 'सुखदा' में लेखक ने यह कहने का अवसर लिया-"हमको आर्थिक कार्यक्रम चाहिए । राजनीतिक पहला कदम है, असली काम आर्थिक है।"
'सुखदा' में लाल ने कहा- "बच्चे को दूध नहीं मिले, शिक्षा नहीं मिले, खुद पूरी खुराक न ली जाए, और-कोशिश हो कि सन्तोष रखें । यह इतना बड़ा झूठ विचार समाज में चला दिया गया है जो हमारी मध्यम श्रेणी को भीतर से खाए जा रहा है। ऊपर से इज्जत रखनी पड़ती है। भीतर से सन्तोष रखना पड़ता है । इस द्वन्द्व से ज़िन्दगी फटी जा रही है।"
पारिवारिक नहीं, सामाजिक संस्कृति का नारा जैनेन्द्र ने 'सुखदः' में बुलन्द किया है।
'सुखदा' में हरीश, लाल, प्रभात आदि चरित्र जैनेन्द्र के व्यक्तिबोधवाद की