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जैनेन्द्र के जयवद्धन-पूर्व उपन्यास : एक पर्यवेक्षण
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कल्याणी।
सुखदा की कथा का ढंग अंग्रेजी उपन्यासकार डॅनियल डिफी (Daniel Dofos) के मॉल फ्लन्डर्स (Moll Flanders) उपन्यास के ढंग का है । सुखदा में वास्तव में जैनेन्द्र ने जीवन का सुखदा-सत्य स्पष्ट किया है । रीतापन का धुधला ठहराव उसके अन्दर है । सुखदा के ही शब्दों में, "चारों ओर से काट-काटकर अपने को अलग करती गई, और एकाकी बनकर जिधर भागती हुई चली आई है, वहाँ देखती हूँ-रेत, रेत, रेत ! केवल मृगतृष्णिका । जल वहाँ नहीं है, रेत ही लहलहाती मालूम होती रही है । अब थक रही हूँ । दम बाकी नहीं रह गया है । भीतर का नेह इस भागदौड़ में सुखाती रही हूँ। अब सब चुक गया मालूम होता है । ऐसे समय इस अपार रेगिस्तान के बीच आ पड़ी हूँ-ऊपर तपती घाम, नीचे जलती बालू, चारों मोर विजनता । लौटने तक का उपाय नहीं । दम कब टूटकर साथ छोड़ता है, यही एक बाट है।"
जीवन की यह सुखदा-स्थिति है-सुखदावाद । जीवन का सूखदा-प्रन्थि से पीड़ित वातावरण-दम टूट जाने का काला-काला इन्तज़ार । किन्तु, अपने सुप्रसिद्ध 1 उपन्यास 'कल्याणी' में जैनेन्द्र मृत्यु को अनागत का विषय मानते हैं और अनागत जानने का अधिकार स्वीकार नहीं कर पाते ।
सुखदा व्यष्टि-संश्लिष्टता के अन्तर्जीवन से परिपूर्ण है । सुखदा-स्थिति में दिशा-समाप्ति नहीं है । मरणोत्तर गति में आस्था उसे है । जीवन को परिभ्रमण के महाचक्र में संचालित वह परिलक्षित करती है । परलोक की तथाकथित पूजी धर्मग्रन्थि अथवा धार्मिक जड़ता से उसने अपने को वंचित रखा है । इस पार की करुणा को उस पार भी कार्यान्वित करना उसकी इच्छा रही है।
एकाकीवाद की उत्तरकालीन स्थिति से परिपूर्ण प्रात्म-पीड़न और त्रास में सुखदा केवल रेत ही पाती है-मृगतृष्णिका । जल नहीं, रेत का सूखा सागर । थकावट का गहन अन्धकार ।
सुखदा के अनुसार, "स्त्री के भी हृदय होता है, और वह भी कुछ दायित्व रखती है । उसके बुद्धि भी होती है और वह निर्णय कर सकती है।" यह ठीक है, किन्तु स्वयं सुखदा ने स्त्रीत्व का समुचित उपयोग नहीं किया, स्त्रीत्व का एकपक्षीय
और एकांगी प्रतिपादन किया। और, परिणाम ? रेत का समुद्र-बस । जिन्दगी का उखड़ गया धरातल हाँ।
जैनेन्द्र का त्रासवाद मन की भाव-ग्रंथियों का सतही त्रास है । सुखदा के पति ने सुखदा से कहा